हरित क्रांति

हरित क्रांति

हरित क्रांति –

1966 में कृषि नीति – हरित क्रांति :-

सन् 1950 से 1965 के बीच खाद्यानों का उत्पादन बढ़ा परंतु देश में अनाजों की कमी बनी रही।

इस कमी को पूरा करने के लिए विदेशों से अनाज मँगाया जाता था।

यह बहुत ही चिंता का विषय था।

उसी दरम्यान सन् 1965 और 1966 दोनों ही सूखे के साल थे।

इस समय अनाज की पैदावार (खाद्यान्न और दालें) बहुत कम पैदा हुई

जिसके कारण अकाल की स्थिति निर्मित हुई एवं सरकार को अनाजों की पूर्ति के लिए पहले से ज्यादा अनाज आयात करने की जरूरत पड़ी।

सरकार के सामने अनाज की पैदावार बढ़ाना सबसे बड़ी समस्या थी।

इसके लिए कृषि वैज्ञानिकों की सहायता से कृषि योजना बनाई गई,

जिसे हरित क्रांति का नाम दिया गया।

हरित क्रांति के प्रमुख घटक :-

इस कार्यक्रम के अंतर्गत निम्नलिखित कार्य करने की योजना बनाई गई-

1. अधिक उपज देनेवाले उन्नतशील बीज का उपयोग।

2. सिंचाई के लिए मोटर पम्प, बिजली, डीजल का प्रबंध।

3. रासायनिक खाद उपलब्ध कराना।

4. कृषि कार्यों में मशीनों का उपयोग।

5.कीटनाशक दवाओं का उपयोग।

6. कृषि उत्पादनों के लिए मंडी तथा भंडारण की व्यवस्था।

7. सोसायटी एवं बैंक से पूँजी की व्यवस्था।

उन्नत बीजों के लिए अच्छी सिंचाई वाली जमीन की जरूरत होती है।

इन बीजों की विशेषला थी-ये कम समय में पकते थे, फसल छोटे कद की होती थी,

अनाज की पैदावार अधिक होती थी।

देशी बीजों में कीटों का आक्रमण कम होता है

परंतु इन उन्नत फसलों पर नुकसान पहुँचाने वाले कीटों का आक्रमण सरलता से हो जाता है।

अतः कीटों को मारने वाली दवाओं की भी जरूरत होती है।

सही दाम पर उन्नत बीज, खाद, कीटनाशक दवाओं इत्यादि की पूर्ति के लिए हमारे राज्य में सहकारी संस्थाओं की स्थापना की गई है।

चूँकि ये दवाइयों भारत में अधिक नहीं बनती, अतः इन्हें विदेशों से आयात करना पड़ता था।

धीरे-धीरे हम मशीनों की सहायता से खेती करने लगे।

हरित क्रांति कहाँ फैली?

भारत में हरित क्रांति को पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु के कुछ जिलों में सघन जिला कृषि कार्यक्रम’ के नाम से लागू की गई।

उन्नत बीजों के लिए बहुत ज्यादा पानी की जरूरत होती है और जिन क्षेत्रों में पहले से ही सिंचाई होती थी,

उन्हीं जिलों का चयन इस कार्यक्रम के लिए किया गया।

पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तरप्रदेश में नए किस्म का गेहूँ पैदा किया जाता था,

जबकि तमिलनाडु में चावल पैदा किया जाता था।

कुछ वर्षों बाद कृ षि की नई तकनीक देश के अन्य भागों में फैल गई।

छत्तीसगढ़ में हरित क्रांति सन् 1966 में जिला सघन कृषि कार्यक्रम के माध्यम से शुरू हुई।

इसके लिए रायपुर जिले का चयन किया गया।

इस योजना के अंतर्गत कृषि महाविद्यालय में अनुसंधान केन्द्र की स्थापना की गई

जहाँ नई प्रजातियों के उन्नत बीज तैयार किए गए।

उन्नत किस्म के बीज, खाद, कीटनाशक दवाओं के लिए सरकार द्वारा अनुदान की व्यवस्था की गई।

सिंचाई के लिए नलकूप खनन तथा सिंचाई परियोजनाओं को प्राथमिकता दी गई।

इसी उद्देश्य से राज्य के कोडार बाँध तथा पं. रविशंकर जलाशय का निर्माण किया गया।

सहकारी संस्थाओं की स्थापना कर आसान किश्तों पर कृषि ऋण उपलब्ध कराया गया।

इससे किसानों के पास संसाधनों की वृद्धि हुई ताकि उन्हें जमींदार व साहूकारों के पास जाना न पड़े।

हरित क्रांति का प्रभाव –

1. पैदावार में बढ़ोत्तरी –

देश के बड़े हिस्से में और नई फसलों में उन्नत बीज के फैलाव से फसल की पैदावार में महत्वपूर्ण बढ़ोत्तरी हुई है।

हम अनाज के मामले में स्वावलंबी हो गए।

पैदावार बढ़ने से अब दूसरे देशों से अनाज मँगवाने की जरूरत नहीं रही।

सरकार के पास अनाज का बहुत बड़ा भंडार हो गया है

और अनाज की कमी होने पर उसका उपयोग किया जा सकता है।

सन् 1967 में सरकार के पास कुल 19 लाख टन अनाज का भंडार था।

2. समर्थन मूल्य एवं अनाज का भंडारण –

किसानों को उनकी फसल का उचित मूल्य दिलाने के लिए सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने का फैसला किया।

न्यूनतम समर्थन मूल्य वह कीमत है जिस पर सरकार किसानों  की उपज को खरीदती है।

सरकार इस तरह समर्थन मूल्य तय करती है जिससे किसान को उपज की लागत मिल सके और कुछ लाभ भी हो सके।

समर्थन मूल्य के कारण किसान व्यापारियों को कम कीमत पर अनाज बेचने के लिए बाध्य नहीं होते।

भारत सरकार ने किसानों से अनाज खरीदने और उसका भंडारण करने के लिए भारतीय खाद्य निगम का गठन किया है।

यह अनाज का भंडार रखता है और राशन दूकानों और अन्य सरकारी योजनाओं (जैसे स्कूलों में मध्याह्न भोजन, उचित मूल्य की दुकान) को अनाज देता है।

3. कृषि उत्पादन में वृद्धि का किसानों की आमदनी पर प्रभाव –

जैसे-जैसे अनाज की पैदावार बढी किसानों को सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम समर्थन मूल्य के कारण अनाज की बेहतर कीमत मिलने लगी और उनकी आमदनी बढ़ने लगी।

कई बड़े किसान खेती के काम के लिए ट्रेक्टर जैसी मशीन खरीदने लगे।

इसके लिए विभिन्न बैंकों से उन्होंने कर्ज भी लिया। पानी, बिजली, खाद, बीज और कीटनाशक दवाइयों के फसल प्रयोग से अब किसानों द्वारा एक से अधिक फसल ली जाने लगी।

किसान अब परम्परागत अनाजों की खेती से हटकर व्यावसायिक फसलों का भी उत्पादन करने लगे।

इनमें गन्ना, कपास, मूँगफली, साग-सब्जियाँ, फल-फूल, मशरूम तथा औषधि की खेती में निरंतर वृद्धि होने लगी।

छोटे किसानों को बड़े किसानों की तुलना में कम फायदा हुआ।

पानी, बिजली, बीज, खाद और कीटनाशक की लागत उनकी कमाई की तुलना में अधिक थी।

अतः छोटे किसानों का कर्जदार होना साधारण बात हो गई।

जीने के लिए छोटे किसानों को दूसरों के खेतों में मजदूरों के रूप में काम करना पड़ता था।

आजकल भारत के ज्यादातर गाँवों में छोटे किसान और खेतिहर मजदूर के परिवारों के सामने यह समस्या है

कि उन्हें साल भर के लिए काम नहीं मिलता।

छोटे और बड़े किसानों पर खेती के नए तरीकों का जो असर हुआ उसकी तुलना कीजिए।

4. पर्यावरण पर असर :-

हरित क्रान्ति से पर्यावरण में कई तरह के असन्तुलन पैदा हुए।

हरित क्रान्ति पहले पंजाब, हरियाणा और उत्तरप्रदेश के कुछ हिस्सों में लागू हुई थी।

इन राज्यों में बहुत से किसान धान और गेहूँ की उन्नत खेती करने लगे, जिसके लिए बहुत सिंचाई की जरूरत होती थी।

इनका दुष्प्रभाव स्वास्थ्य, जलवायु, जलीय जीव जंतु पर भी देखने को मिला।

(अ) पानी की समस्या :-

सिंचाई का मुख्य स्रोत नलकूप हैं जिसमें भू-जल का उपयोग किया जाता है।

जैसे-जैसे कई सालों में नलकूपों की संख्या बढ़ी, वैसे-वैसे भू-जल का स्तर तेजी से गिरा है।

भू-जल का स्तर तब तक वैसा ही बना रह सकता है जब उपयोग किए गए भू-जल की मात्रा उसके पुनर्भरण के बराबर होती है।

भू-जल का पुनर्भरण एक प्राकृतिक प्रक्रिया है जो हर साल बारिश, नहरों, नालों और नदियों से होता रहता है।

इस विषय पर आपने कक्षा 7वीं में विस्तार से अध्ययन किया है।

इन स्रोतों से पानी, मिट्टी के कई किस्म की परतों से होकर धीरे-धीरे रिसता है और भू-जल के रूप में इकट्ठा होता रहता है।

समस्या तब पैदा होती है जब नलकूपों आदि के द्वारा उपयोग किए जानेवाले भू-जल का उपयोग पुनर्भरण से ज्यादा होने लगता है।

दूसरे शब्दों में, जितना पानी भू-जल के रूप में संग्रह होता है उससे ज्यादा पानी का उपयोग होता है।

इससे भू-जल का स्तर उस क्षेत्र में नीचे चला जाता है।

भू-जल स्तर के नीचे जाने का मतलब यह है कि भविष्य में उस क्षेत्र में पानी की समस्या उत्पन्न हो जाएगी।

एक तरफ पंजाब जैसे क्षेत्र में पानी का अत्यधिक दोहन हुआ है और दूसरी तरफ छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में सिंचाई का अभाव है।

यहाँ दो फसलें ले पाने की संभावनाओं को बढ़ाया जा सकता है।

छत्तीसगढ़ के पठारी एवं पहाड़ी क्षेत्रों मैं कुएँ, नलकूप, लिफ्ट इरिगेशन (नदी नालों से पानी को उठाकर खेत तक लाना) और छोटे तालाब का अधिक उपयोग कर जल को संरक्षित किया जा सकता है।

(ब) मिट्टी के उपजाऊपन में कमी :-

मिटटी में रासायनिक खाद की मात्रा ज्यादा हो जाने के कारण मिट्टी के सूक्ष्म जैविक तत्व (माइक्रो-आर्गनिज्म) नष्ट हो जाते हैं

और उन पोषक तत्वों को नष्ट कर देते हैं जो मिट्टी के उपजाऊपन के लिए आवश्यक है।

वैज्ञानिक अदूरदर्शिता तथा उर्वरकों का असंतुलित उपयोग से मिट्टी के कुल उपजाऊपन में कमी आ जाती है।

प्राकृतिक उपजाऊपन कम हो जाने के कारण मिट्टी में ज्यादा जैविक खाद देनी पड़ती है,

जिससे फसल की पैदावार वैसी ही बनी रहे।

इस प्रकार सिंचाई के खर्च के साथ ही खेती में खाद का खर्च बढ़ जाता है जिससे किसानों का खर्च बढ़ जाता है

और मिटटी भी खराब होती जाती है।

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