लोकमत का अर्थ व परिभाषा

लोकमत

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जानिए, लोकमत क्या है?

लोकमत का अर्थ व परिभाषा – (Meaning and definition of public Opinion)

अर्थ –

जनमत या लोकमत दो शब्दों से मिलकर बना है।

जनमत अर्थात जनता का मत।

लेकिन सभी मत जनमत नहीं होते।

जो मत सार्वजनिक हित पर आधारित हो वही जनमत है।

ऐसा मत भी जनमत है जो अल्पसंख्यकों का मत हो किन्तु बहुमत उससे सहमत हो।

इस प्रकार लोकमत वह मत है जिससे अल्पसंख्यक व बहुसंख्यक दोनों सहमत हों तथा वह लोककल्याण की भावना

पर आधारित हो।

परिभाषा –

डॉ० बेनी प्रसाद के अनुसार-

“वह मत लोकमत है जो जन कल्याण के भाव पर आधारित हो।”

लावेल के अनुसार –

” लोकमत का बहुमत व सर्वसम्मत होना आवश्यक नहीं। लोकमत सही राय पर नहीं विश्वास पर आधारित होना चाहिये।”

प्रजातंत्र में लोकमत का महत्व

1. सरकार का निर्माण व पतन ।

2. शासन के नीति का निर्धारण।

3. शासन की निरंकुशता पर रोक ।

4. नागरिकों में राजनीतिक जागरूकता लाना।

5. व्यवस्थापिका व कार्यपालिका का पथ प्रदर्शन।

6. सामाजिक जीवन को नियंत्रित करना।

प्रजातंत्र में लोकमत का महत्व (Importance of Public Opinion in Democracy)

यद्यपि अन्य शासन प्रणाली में लोकमत का महत्व होता है किन्तु लोकतंत्र में इसका सर्वाधिक महत्व है।

क्योंकि प्रजातांत्रिक शासन व्यवस्था का मूलाधार लोकमत है।

गेटिल ने लिखा है

“लोकतांत्रिक शासन की सफलता जनमत की इस बात पर निर्भर करती है कि लोकमत सरकार के कार्यों व नीतियों को किस सीमा तक नियंत्रित करता है।”

लोकमत का महत्व है-

1. सरकार को बनाना व सरकार को पतन की ओर ले जाना लोकमत पर निर्भर करता है।

क्योकि वही दल सरकार बनाता है जिसे लोकमत समर्थन देता है।

यदि सत्तारूढ दल लोकमत के अनुसार शासन करता है तो पुनः सत्ता प्राप्त करता है।

यदि लोकमत की अवहेलना करता है तो उसका स्थान विरोधी दल ले लेते हैं।

ई.बी. शुक्ल ने कहा है-लोक मत एक प्रबल सामाजिक शक्ति है जिसकी अवहेलना करने वाला दल अपने लिये संकट को आमंत्रित करता है।

2. लोकमत के द्वारा सरकार अपने नीतियों व कार्यक्रमों को क्रियान्वित करती है तथा लोकमत सरकार को सार्वजनिक हित विरोधी कार्य करने से रोकती है।

जो भी कानून बनाये जाते हैं उनका सीधा संबंध जनता की इच्छा से होता है।

3. लोकमत शासन की निरंकुशता पर नियंत्रण स्थापित करता है।

यदि शासक वर्ग मनमानी व भ्रष्टाचार करता है तो लोकमत उस पर नियंत्रण लगाता है।

लोकमत योग्य नेतृत्व को भी सामने लाता है।

4. लोकमत नागरिकों में राजनीतिक जागरूकता लाता है।

यह जनता को अधिकार व कर्तव्यों के प्रति सजग रखता है तथा राष्ट्रीयता की भावना का विकास करता है।

5. यह व्यवस्थापिका व कार्यपालिका का पथ-प्रदर्शक है।

शासन के नवीन कार्यक्रम व योजनाओं के संचालन में सहयोगी बनाता है।

6. लोकमत सामाजिक जीवन को भी नियंत्रित रखता है तथा अनेक सामाजिक समस्याओं को सुलझाने में सहयोग देता है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि लोकमत प्रजातंत्र के विकास में महत्वपूर्ण योगदान देता है।

इसलिये डॉ० आशीर्वादम ने लिखा है –

“जागरूक व सचेत जनमत स्वस्थ प्रजातंत्र की पहली जरूरत है।”

लोकमत

लोकमत निर्माण अभिव्यक्ति के साधन :-

1. शिक्षण संस्थाएँ, ।

2 . सार्वजनिक सभाएँ ।

3. समाचार पत्र तथा पत्र-पत्रिकाएँ ।

4. रेडियो तथा सिनेमा ।

5. धार्मिक संगठन तथा संस्थाएँ

6. राजनीतिक दल ।

7. निर्वाचन तथा चुनाव।

8. व्यवस्थापिका सभाएँ ।

लोकमत निर्माण व अभिव्यक्ति के साधन –

लोकमत या जनमत का निर्माण स्वयं नहीं हो जाता, वरन् उसका निर्माण किया जाता है।

जनमत के निर्माण तथा व्यक्त करने के निम्नांकित साधन हैं : –

1. शिक्षण संस्थाएं –

शिक्षण संस्थाओं द्वारा बच्चों की विचारधाराओं पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है।

साधारणतया यह देखा जाता है कि किसी देश के नेताओं या शासकों का ध्यान अपने देश की शिक्षा प्रणाली पर सबसे पहले जाता है।

लोकमत को संगठित करने और व्यक्त करने का यह सर्वोत्तम साधन है।

शिक्षण संस्थाएँ राष्ट्र के चरित्र- निर्माण में सहायता प्रदान करती हैं तथा देश के भावी नागरिकों को तैयार करती है।

2. सार्वजनिक सभाएं –

सभाओं तथा व्याख्यानों द्वारा देश के बड़े-बड़े नेता जनता के सामने सार्वजनिक प्रश्नों पर अपना मत प्रकट करते हैं।

इन सभाओं से सार्वजनिक अव्यवस्थाओं को प्रकट करने तथा शासन के कार्यों की आलोचना करने का भी अवसर मिलता है।

इस प्रकार लोकमत या जनमत के निर्माण करने तथा उसे व्यक्त करने में सभाएं भी महत्वपूर्ण भाग लेती है।

3. समाचार पत्र तथा पत्र-पत्रिकाएं –

समाचार पत्र तरह-तरह की घटनाओं, समस्याओं और विचारों के बारे में जनता को सूचना प्रदान करने का कार्य करते हैं।

साधारण रूप से समाचार पत्रों में सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और अंतर्राष्ट्रीय सूचनाओं के आधार पर ही जनसाधारण विचारों को बनाता है।

समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में विभिन्न प्रकार के मत ज्ञात होते रहते हैं।

इस प्रकार आधुनिक काल में समाचार पत्र राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय, आर्थिक, आध्यात्मिक सभी प्रकार की समस्याओं की जानकारी कराते हैं।

लार्ड ब्राइस ने लिखा है समाचार पत्रों वाले प्रेस ने ही बड़े-बड़े देशों में प्रजातंत्र को सम्भव कर दिया है।

समाचार पत्रों में सरकार की आलोचनाएं भी छपती हैं। ये एक प्रकार से सरकार पर नियंत्रण भी रखते हैं।

एक विद्वान का कहना है कि लोकमत निर्माण का प्रमुख साधन समाचार पत्र है।

अच्छे समाचार पत्र लोकतंत्र के लिये ज्योति स्तम्भ का कार्य करते हैं। वे प्रजातंत्र के ग्रन्थ कहे जा सकते हैं।

परंतु समाचार पत्रों को पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त होनी चाहिए तथा उनको भी निष्पक्ष समाचार जनता तक पहुंचाने चाहिए।

4. रेडियो तथा सिनेमा –

आज कल जनमत के संगठन में रेडियो और सिनेमा की भी प्रधानता है।

इनका कार्य केवल मनोरंजन करना ही नहीं है वरन वे जनमत का निर्माण भी करते हैं और उसे व्यक्त भी करते हैं।

इसलिये इन्हें जनता के विचारों को किसी विशेष ढांचे में ढालने के अवसर मिल जाते हैं।

5. धार्मिक संगठन तथा संस्थाएं –

आज भी भारत में लोकतंत्र के प्रचार और विकास में धार्मिक संस्थाओं का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है।

लोगों पर धर्म का प्रभाव आज भी जादू की तरह असर करता है।

परंतु एक सही जनमत के निर्माण के लिये यह जरूरी है कि धार्मिक संस्थाएँ अपने संकुचित दृष्टिकोण को त्याग कर राजनीतिक प्रश्नों पर एक उदार दृष्टिकोण से विचार करें।

6. राजनीतिक दलों का योगदान –

राजनीतिक दल भी सार्वजनिक प्रसार के साधान हैं।

वे जनता में देश की समस्याओं और सरकार की नीति के थारे में विचार रखते हैं।

इस प्रकार इन दलों द्वारा जनता में राजनीतिक शिक्षा का प्रचार होता है और एक प्रगतिशील जनमत का निर्माण हो जाता है।

लोकमत का निर्माण करने में राजनीतिक दलों का बहुत बड़ा योगदान रहता है।

ये दल एक प्रकार से निर्णायक भूमिका निभाते हैं।

देश के अन्य साधन भी बहुत कुछ राजनीतिक दलों से संबंधित होते हैं।

राजनीतिक दल स्थान-स्थान पर सभाएँ करते हैं, चुनाव लड़ते हैं, अपनी पत्रिकाएँ निकालते हैं और अपने विचारों का प्रचार करते हैं।

राजनीतिक नेतागण भाषण तथा लेख छपवाकर जनमत को प्रभावित करते हैं।

महात्मागांधी, जवाहर लाल नेहरू, सरदार पटेल, सुभाषचंद्र बोस, जयप्रकाश नारायण आदि नेताओं ने अपने भाषणों द्वारा भारतीय जनता के हृदयों को जीता और प्रबल लोकमत पैदा किया।

प्रचार के साधनों के बढ़ने के साथ-साथ लोकमत के निर्माण में राजनीतिक दलों का भी भाग उतना ही बढ़ता जाता है।

राजनीतिक दलों के सामने बड़े-बड़े संगठन बेकार साबित हो रहे हैं।

दलों की आवाज जनता तक आसानी से पहुँच जाती है।

7. निर्वाचन तथा चुनाव –

चुनाव के समय सभी राजनीतिक दल प्रचार साधनों को लेकर जनमत को अपने अपने पक्ष में करने का प्रयास करते हैं।

जनता राजनीतिक दलों की बातों को ध्यानपूर्वक सुनती है।

वह इस क्षेत्र में बड़ी तेजी से काम करती है।

क्योकि मत देने का निर्णय तुरंत करना पड़ता है।

8. व्यवस्थापिका सभाएँ –

व्यवस्थापिका सभाओं के द्वारा भी जनमत का निर्माण होता है।

इन सभाओं में देश की समस्याओं पर वाद-विवाद होता है।

ये वाद-विवाद समाचार पत्रों तथा आकाशवाणी द्वारा साधारण जनता तक पहुँचते हैं।

व्यवस्थापिका सभाओं में सारे दलों के प्रतिनिधि होते हैं, जो प्रायः सभी प्रकार की विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं।

इस सभासदों के वाद-विवादों से लोगों को देश की समस्याओं के सभी पक्षों का ज्ञान हो जाता है और उन्हें उन समस्याओं पर अपना मत निर्धारित करने का सुअवसर प्राप्त होता है।

देश के विभिन्न भार्गों के प्रतिनिधि वहाँ पर देश की विभिन्न समस्याओं के संबंध में लोकमत की अभिव्यक्ति करते हैं।

इस प्रकार उपर्युक्त साधनों द्वारा लोकमत का निर्माण और अभिव्यक्ति होती है।

लोकमत के बाधक तत्व :-

1. अज्ञानता व अशिक्षा ।

2. वर्गवाद व जातिवाद ।

3. साम्प्रदायिकता ।

4. गरीबी व संकीर्ण धार्मिकता ।

लोकमत के बाधक तत्व :

1. लोकमत में मुख्य बाधा अज्ञानता व अशिक्षा है।

अशिक्षित व्यक्ति सरलता से बहकावे में आ जाते हैं तथा स्वस्थ जनमत का निर्माण नहीं हो पाता ।

2. वर्गवाद व साम्प्रदायिकता, जातिवाद स्वस्थ जनमत निर्माण में बाधक है।

3. साम्प्रदायिकता के आधार पर दलों का निर्माण तथा आदर्श संहिता का अभाव स्वस्थ लोकमत में बाधक है।

4. गरीबी व संकीर्ण धार्मिकता भी स्वस्थ जनमत निर्माण में बाधक है।

स्वस्थ लोकमत निर्माण की शर्तें:

1. शिक्षा।

2. निष्पक्ष समाचार पत्र ।

3. स्वतंत्रता, समानता व लोकतंत्र की स्थापना ।

4. भाषा व संस्कृति की एकता।

5. शांतिमय वातावरण ।

6. दलों का राजनीतिक आधार पर गठन।

स्वस्थ लोकमत निर्माण की शर्तें :

1. जनता शिक्षित होना चाहिये तथा निर्धनता का अभाव होना आवश्यक है।

2. निष्पक्ष समाचार पत्र व शांतिपूर्ण वातावरण स्वस्थ जनमत की आवश्यक शर्त है।

3. स्वस्थ जनमत निर्माण के लिये स्वतंत्रता, समानता व लोकतंत्र की स्थापना भी आवश्यक है।

4. भाषा व संस्कृति की एकता भी आवश्यक है।

राजनीतिक दल

राजनीतिक दल का अर्थ –

राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक प्रश्न पर एक समान विचारधारा रखने वाले व्यक्ति, शासन शक्ति प्राप्त करने के उद्देश्य से जिस संगठन का निर्माण करते हैं उसे राजनीतिक दल कहते हैं।

राजनीतिक दल लोकतंत्र में आवश्यक होते हैं

बार्ड ब्राइस ने लिखा है-

राजनीतिक दल अनिवार्य है।

किसी व्यक्ति में यह नहीं दिखाया कि लोकतंत्र बिना राजनीतिक दल के किस प्रकार चल सकते हैं।

यह मतदाताओं के समूह की अराजकता में व्यवस्था उत्पन्न करते हैं यदि दल कुछ बुराइयाँ प्रकट करते हैं तो दूसरी बुराइयों को कम या दूर भी करते हैं।

परिभाषा:-

एडमंड बर्क के अनुसार

“राजनीतिक दल मनुष्यों के उस संगठन को कहते हैं जो एक सिद्धांत पर सहमत हो और जिसके द्वारा राष्ट्रहित संपन्न किया जा सके।”

गिल क्राइस्ट के अनुसार

“राजनीतिक दल नागिरकों के उस समूह को कहते हैं जो एक ही राजनीतिक सिद्धांत को मानते हैं व एक राजनीतिक्र इकाई के रुप में कार्य करते हैं तथा सरकार पर अपना अधिकार जताने का प्रयत्न करते हैं।”

रोडी के अनुसार

“राजनीतिक दल ऐसा इंजिन है जो बहुसंख्यकों का निर्माण करता है और राजनीतिक सत्ता को क्रियान्वित करता है।”

राजनीतिक दलों के आवश्यक तत्व :-

परिभाषाओं के आधार पर दलों के निम्नलिखित आवश्यक तत्व हैं :-

1. संगठनः-

एक ही प्रकार के विचार के व्यक्तियों का भली प्रकार संगठीत होना आवश्यक है इनके राजनीतिक विचार भी एक होना चाहिए।

2. सामान्य सिद्धांत में एकता :-

राजनीतिक दल के लिए यह आवश्यक है कि सभी सदस्य मूल सिद्धांतों के विषय में एक ही प्रकार की धारणा रखते हों।

3. संवैधानिक साधनों में विश्वासः-

राजनीतिक दल के सदस्य संवैधानिक उपायों व साधनों में विश्वास रखते हैं, वे हिंसा या सशस्त्र क्रांति का सहारा नहीं लेते।

4. शासन पर प्रभुत्व की इच्छाः-

राजनीतिक दल का उद्देश्य चुनाव के माध्यम से शासन पर प्रभुत्व स्थापित कर अपनी नीतियों व विचारों को लागू करना होता है।

5. राष्ट्रीय हितः-

राजनीतिक दलों का गठन सांप्रदायिक या धार्मिक आधार पर न होकर राष्ट्रीय हित के आधार पर होना चाहिए।

प्रजातंत्र में राजनीतिक दलों का महत्व (Importance of political parties in democracy)

प्रजातंत्र में शासन की समस्त प्रक्रिया राजनीतिक दलों के आधार पर ही संपन्न होती है।

दलहीन लोकतंत्र की कल्पना नहीं की जा सकती।

राजनीतिक दल प्रतिनिधि मूलक प्रजातंत्र के आवश्यक अंग हैं।

प्रजांतत्र में राजनीतिक दल के महत्व को निम्न रुपों में स्पष्ट किया जा सकता है :-

1. लोकमत निर्माण :-

स्वस्थ लोकमत निर्माण की अभिव्यक्ति दलों द्वारा ही संभव है।

राजनीतिक दल सम्मेलन कार्यक्रमों, समाचार पत्रों के माध्यम से राष्ट्रीय समस्याओं और अन्य विषयों पर जनमत निर्माण करते हैं।

2. चुनाव संचालनः-

राजनीतिक दल नागरिकों को राजनीतिक शिक्षा देते हैं तथा उम्मीदवारों को खड़ा करते हैं।

उनके पक्ष में जनमत तैयार करते हैं तथा चुनाव के अन्य कार्यों में सहयोग करते हैं।

यदि दल नहीं हो तो लोकतंत्र में चुनाव संचालन संभव नहीं।

3. सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व :-

देश के शासन में जनता के सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व राजनीतिक दलों के कारण ही संभव है।

विभिन्न वर्ग के लोग राजनीतिक दलों के रुप में संगठित होकर अपने दलों का प्रचार- प्रसार करते हैं।

4. सरकार का निर्माण व संचालन :-

राजनीतिक दल सरकार का निर्माण करते हैं अपितु व्यवस्थापिका व कार्यपालिका समन्वय स्थापित कर शासन के संचालन को सरल व संभव बनाते हैं ।

5. शासन सत्ता को मर्यादित रखनाः-

दल शासन सत्ता पर नियंत्रण रखते है, बहुमत दल को जनविरोधी कार्य करने से रोकते हैं तथा विपक्षी दल उसके विरोध में जनमत तैयार करते हैं।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि दलों के बिना लोकतंत्र संभव नहीं है।

प्रजातंत्र में राजनीतिक दलों का महत्वः-

१. स्वस्थ लोकमत का निर्माण।

२. चुनाव संचालन व राजनीतिक शिक्षा।

३. सभी वर्गों का प्रतिनिधित्व ।

४. सरकार का निर्माण व संचालन।

५. शासन सत्ता को मर्यादित रखना।

लोकतंत्र में राजनीतिक दलों के कार्य एवं भूमिका (Functions of political parties in Democracy):-

आधुनिक लोकतंत्रात्मक शासन में दल निम्नलिखित कार्य करते हैं

1. सदृढ़ संगठन स्थापित करना:-

राजनीतिक दल केन्दीय प्रांतीय व स्थानीय स्तर पर अपने संगठन स्थापित करते हैं।

संगठन को मजबूत बनाने के लिए तथा कार्यकर्ताओं और नेताओं में समन्वय स्थापित करने के लिए क्षेत्रीय प्रादेशिक व राष्ट्रीय अधिवेशन करते हैं।

2. दलीय नीति का निर्धारणः-

प्रत्येक राजनीतिक दल विभिन्न विषयों पर दलीय नीति निर्धारित करते हहैं और यह भी बताते हैं कि उनकी नीति सबसे अच्छी क्यों है।

3. दलीय नीति का प्रचार व प्रसारः-

दलों का लक्ष्य सत्ता प्राप्त करना होता है इसलिए ये अपने दलों का अधिक प्रचार- प्रसार करते हैं।

इसके लिए टीवी, सिनेमा और समाचार पत्रों का सहारा लेते हैं।

4. लोकमत का निर्माण:-

राजनीतिक दल विभिन्न राजनीतिक समस्याओं के संबंध में अपने अपने विचार रखते हैं जिन्हें पढ़ और समझकर जनता निर्णय लेती हैं और स्वस्थ जनमत का निर्माण होता है।

5. उम्मीदवारों का चयन और उन्हें विजयी बनाना:-

प्रत्येक राजनीतिक दल सार्वजनिक पदों के लिए अपने उम्मीदवार खड़े करते हैं और चुनाव लड़ते हैं और प्रत्याशी के माध्यम से अपनी नीतियों के साथ प्रचार करते है

तथा उन्हें विजयी बनाने के लिए हर संभव उपाय करते हैं तथा शासन सत्ता में बहुमत दल के रुप में प्रतिष्ठित होने का प्रयास करते हैं।

शासन की निरकुंशता पर नियंत्रणः-

प्रजातंत्रीय शासन में बहुमत प्राप्त दल सत्तारुढ़ होता है तथा अल्पमत दल विरोधी दल का कार्य करते हैं।

विरोधी दल शासन को मनमानी नहीं करने देते तथा उसकी निरकुंशता पर रोक लगाते हैं।

लास्की ने कहा है –

“दल प्रणाली तानाशाही से हमारी रक्षा करने का सर्वोत्तम साधन है।”

6. राष्ट्रीय एकता की स्थापना:-

राजनीतिक दलों का उद्देश्य राष्ट्रीय हित व एकता में कार्य करना है।

दल संकीर्ण हितों से ऊपर उठ कर जनमत निर्माण कर राष्ट्रीय एकता के लिए सतत प्रयत्नशील रहते हैं

साथ ही सामाजिक व सांस्कृतिक विकास का निरन्तर प्रयास करते हैं।

राजनीतिक दलों के कार्य

१. सुदृढ़ संगठन स्थापित करना।

२. दलीय नीति का प्रचार ।

३. दलीय नीति का निर्धारण

४. लोकमत का निर्माण ।

५. उम्मीदवारों का चयन एवं सत्ता प्राप्ति।

६. शासन की निरंकुशता पर रोक।

७. राष्ट्रीय एकता की स्थापना।

राजनीतिक दलों के दोष:-

1. राजनीतिक दल लोकतंत्र के विकास में बाधक होते हैं

क्योंकि दल के सदस्य सार्वजनिक क्षेत्र में व्यक्तिगत विचार त्यागकर दल के समर्थन में अनुचित, राष्ट्रविरोधी बातों का भी समर्थन करते हैं।

2. दलों के कारण राष्ट्रीय हितों की हानि होती है।

अनेक बार दल अपने नेतृत्व के इतने कट्टर होते हैं कि वे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से दल को प्रधानता देते हैं राष्ट्रहित को नहीं।

3. शासन काल में दल सर्वश्रेष्ठ व्यक्तियों की उपेक्षा करते हैं।

जिससे राष्ट्र उनकी सेवाओं से वंचित हो जाता है।

श्रेष्ठ व्यक्तियों के पास सामान्यतः न तो ज्यादा आर्थिक साधन होते हैं

और न जी हुजूरी का समय अतः वे चुनाव जीत नहीं पाते और देश श्रेष्ठ व्यक्तियों के चुनाव से वंचित रह जाता है।

4. नैतिक स्तर पर गिरावट का साधन भी दल बनते हैं।

येन केन प्रकारेण चुनाव जीतना अपना ध्येय समझते हैं

तथा शक्ति, रूपए के बल पर जातीयता, साम्प्रदायिकता, क्षेत्रीयता व भाषावाद को बढ़ावा देकर जनता के नैतिक स्तर में गिरावट लाते हैं

तथा आदर्श चुनाव व्यवस्था का उल्लंघन कर जनमत को प्रभावित करते हैं वे राजनीतिक भ्रष्टाचार का कारण बनते हैं।

जनता में फूट डालकर विभिन्न मतभेद कराते हैं।

जिससे देश का राजनीतिक वातावरण दूषित होता है और स्वस्थ जनमत सामने नहीं आ पाता ।

5. राजनीतिक दल चुनाव में समय व धन का दुरूपयोग करते हैं चुनाव में लाखों रूपया व समय बरबाद होता है।

जिसका उपयोग राष्ट्रहित में सरलता से किया जा सकता है। दल राष्ट्र के जीवन को उसी प्रकार गंदा करते हैं

जैसे बाढ़, नदी के पानी को प्रदूषित कर देता है।

दल प्रणाली के दोष को निम्नांकित साधनों से दूर किया जा सकता है

1. दलों का गठन राजनीतिक आधार पर हो साम्प्रदायिक, आर्थिक व धार्मिक आधार पर नहीं।

2. दलों को चाहिए कि वे राष्ट्रहित को प्रधानता दें तथा राष्ट्रहित के लिये दलीय हित का परित्याग करें।’

3.दल विरोध के लिये विरोध की प्रवृत्ति का त्यागकर बहुमत दल की उदारता एवं अल्पमत की सहनशीलता का सम्मान करें।

4. दल प्रणाली के दोषों को दूर करने का सर्वोत्तम उपाय है कि आर्थिक विषमता को दूर किया जाये क्योंकि, गरीब जनता सरलता से दिशाहीन हो सकती है।

5. शिक्षा का प्रसार करना भी आवश्यक है तभी दल के बहकावे में आये बिना स्वस्थ जनमत के द्वारा आदर्श सरकार बनायी जा सकती है।

6. प्रजातंत्र व राष्ट्रीय हित के कार्य करने के लिए यह आवश्यक है कि नेतृत्व चरित्रहीन व अयोग्य न हो

तथा निःस्वार्थ राष्ट्रीय हित से प्रेरित दलों की संख्या सीमित होनी चाहिए

क्योंकि अधिक दलों के कारण स्थिर सरकार या स्पष्ट बहुमत नहीं बन पाता है और देश व जनता का अहित होता है।

7. दल प्रणाली के दोषों को दूर करने के लिये यह भी आवश्यक है कि दल आदर्श दल संहिता बनाये व कड़ाई से उनका पालन करें।

दलबदल को प्रोत्साहन न दें अपने चुनाव खर्च लेखे सही रूप से प्रस्तुत करें।

8. उपयुक्त सुझावों के द्वारा राष्ट्रहित व प्रजातंत्र के श्रेष्ठ दल महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते है।

चुनाव

भारतीय संविधान में वयस्क मताधिकार के सिद्धांत को स्वीकार करते हुए संविधान निर्माताओं ने चुनाव से संबंधित सम्पूर्ण व्यवस्था स्वयं ही करना उचित समझा।

प्रजातंत्र में स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव का विशेष महत्व है।

अगर निर्वाचन तंत्र दोषपूर्ण है तो प्रजातंत्र के उत्पत्ति का स्त्रोत विषमय हो जायेगा।

अतः भारतीय संविधान में अनुच्छेद 324 से 329 तक एक पृथक अध्याय रखा गया है।

अक्टूबर 1993 को केन्द्र सरकार की सिफारिश पर चुनाव आयोग को तीन सदस्यीय बना दिया गया है।

चुनाव आयोग निम्न कार्य करेगा।

1. चुनाव क्षेत्र का परिसीमन या सीमांकन।

2. मतदाता सूची तैयार करना।

3. विभिन्न राजनीतिक दलों को राजनीतिक मान्यता प्रदान करना तथा उनके लिए आचार संहिता बनाना।

4. राजनीतिक दलों को चुनाव चिन्ह प्रदान करना।

5. चुनाव से संबंधित समस्त व्यवस्था करना।

जैसे मतदाता सूची बनाना, अधिसूचना जारी करवाना, चुनाव कार्यक्रम की घोषणा करवाना, चुनाव उम्मीदवारों का चयन, नामांकन पत्र, जमानत राशि, मतपत्रों की जांच, मतगणना, आदि कार्य करना।

भारत की चुनाव पद्धति की निम्न विशेषताएँ हैं:-

1. वयस्क मताधिकार ।

2. आरक्षित पदों पर निर्वाचन ।

3. गुप्त मतदान।

4. साधारण पद्धति व अनुपातिक पद्धति से निर्वाचन।

चुनाव लोकतंत्र की आवश्यक प्रक्रिया है।

इस प्रक्रिया के माध्यम से जनता प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से

शासन के कार्य में हिस्सा लेती है।

भारत में वयस्क मताधिकार

 अर्थ :-

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 326 में लोकतंत्र स्थापना करने के लिये वयस्क मताधिकार की व्यवस्था की गई।

इस अनुच्छेद में कहा गया है कि लोकसभा का चुनाव वयस्क मताधिकार के आधार पर होगा।

अर्थात वह व्यक्ति जो भारत का नागरिक है तथा अपराधी, पागल, भष्टाचारी, अवैधानिक आचरण के कारण अयोग्य घोषित नहीं किया गया है

तथा मतदाता सूची में जिसका अपना नाम हो, मतदान का अधिकारी होगा।

अतः भारतीय संविधान में उक्त व्यवस्था के आधार पर मताधिकार प्राप्ति के लिये निर्धारित योग्यता निम्नानुसार है –

1. वह भारत का नागिरक हो।

2. 18 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।

3. गम्भीर अपराध के लिये न्यायालय द्वारा दंडित न किया गया हो।

4. पागल, दीवालिया, भ्रष्ट या अवैधानिक आचरण के रूप मताधिकार से वंचित न किया गया हो।

इस प्रकार जब राज्य के समस्त वयस्क नागरिकों को लिंग व अन्य किसी प्रकार के भेदभाव किए बिना मताधिकार देती है

यह वयस्क मताधिकार या सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार कहलाता है।

वयस्क होने का अर्थ है एक निर्धारित आयु पूरी हो।

जैसे भारत में 18 वर्ष आयु का व्यक्ति वयस्क माना जाता है।

सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के गुण या पक्ष में तर्क

1. लोकतंत्र के सिद्धांतों के अनुकूल ।

2. क्रांति में सुरक्षा।

3. राजनीतिक शिक्षा की प्राप्ति एवं राष्ट्रीय एकता में वृद्धि ।

4. लोकतंत्र की सफलता के लिये आवश्यक ।

5. अल्पसंख्यकों की रक्षा ।

सार्वभौम वयस्क मताधिकार के गुण :-

1. लोकतंत्र के सिद्धांतों के अनुकूल –

वयस्क मताधिकार लोकतांत्रिक के सिद्धांतों के अनुकूल है।

प्रजातंत्र का मूल सिद्धांत राजनैतिक सामानता है।

प्रजातंत्र में प्रत्येक वयस्क स्त्री, पुरूष को बिना किसी भेदभाव के मत देने का अधिकार है।

2. क्रांति से सुरक्षा-

मताधिकार के सार्वभौमिक न होने से जिन लोगों को इनसे वंचित रखा जायेगा।

उनमें असंतोष फैलेगा मताधिकार के अभाव में उन्हें संवैधानिक तरीके से आचरण बदलने का अवसर नहीं मिलेगा।

फलतः वे विद्रोही होगे एवं क्रांति का मार्ग अपनायेंगे।

क्रांति व हिंसा से बचाने वयस्क मताधिकार कारगर उपाय है।

3. राजनीतिक शिक्षा की प्राप्ति एवं राष्ट्रीय एकता में वृद्धि –

वयस्क मताधिकार राजनीतिक शिक्षा की प्राप्ति का महत्वपूर्ण साधन है।

मताधिकार की प्राप्ति से मतदाताओं को राजनीतक व सामाजिक कार्यों में रूचि बढ़ती है।

उनमें राजनीतिक चेतना व उत्तरदायित्व की भावना का विकास होता है। फलतः राष्ट्रीय एकता में वृद्धि होती है।

4. लोकतंत्र की सफलता के लिए आवश्यक –

वयस्क मताधिकार लोकतंत्र की सफलता का मुख्य आधार है।

5. अल्पसंख्यकों की रक्षा करना –

वयस्क मताधिकार के अनुसार अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व होता है।

उन्हें अलग से अधिकार देने की आवश्यकता नहीं होती।

निर्वाचन विधियों द्वारा उनका मतदान किया जाता है।

वयस्क मताधिकार के दोष या विपक्ष में तर्क

1. अयोग्य व्यक्तियों के हाथ में शासन ।

2. राजीतिक सूझबूझ की कमी ।

3. मताधिकार शिक्षित लोगो को हो ।

4. प्रगतिशील विचारों का विरोध ।

वयस्क मताधिकार के दोष या विपक्ष में तर्क :-

वयस्क मताधिकार के दोष में निम्नांकित तर्क दिए गए है।

1. योग्यता पहचान में अक्षमता-

सर हेनरीमेन का कथन है कि

“अधिकांश जनता अयोग्य व मूर्ख होती है।”

उन्हें प्रत्याशियों के गुण-

अवगुण की जानकारी नहीं होती है वे किसी को भी मतदान कर अपना इतिश्री कर लेती है।

अयोग्य प्रत्याशी चुने जाते हैं और प्रशासन निकम्मे लोगों के हाथों में चला जाता है।

2. राजनीतिक सूझबूझ की कमी-

वर्तमान में शासन की समस्याएं काफी जटिल हो गई है।

साधारण मतदाता उसे नहीं समझ सकता।

एक निर्धन व्यक्ति के पास इतना समय नहीं होता है कि वह प्रशासन संबंधी बातों को समझे।

वह अनपढ़ होता है और अपने मत का सदुपयोग नहीं कर पाता।

3. मताधिकार शिक्षित लोगो को हो-

मिल के अनुसार योग्य व्यक्तियों को ही मताधिकार देना चाहिए।

अशिक्षित अज्ञानी अंधविश्वासी लोग मताधिकार का सही उपयोग नहीं कर पाते।

4. प्रगतिशील विचारों का विरोध-

अशिक्षित अज्ञानी उम्मीदवार प्रायः रूढ़िवादी होते हैं तथा प्रगतिशील विचारों का विरोध करते हैं।

इस प्रकार हम देखते हैं कि राज्य की सुख-शांति व विकास वयस्क मताधिकार पर निर्भर है।

किन्तु लोकतंत्र के लिए यह आवश्यक है।

अतः लास्की ने लिखा है

“वयस्क मताधिकार का कोई विकल्प नहीं है। इसलिए प्रायः विश्व के सभी देशों ने इसे स्वीकार कर लिया।”

इसी के द्वारा राजनीतिक जागरूकता लाई जा सकती है।

चुनाव के प्रकार (Kinds of Elections)-

चुनाव के तीन प्रकार होते हैं :-

1. सामान्य व आम चुनाव ।

2. मध्यावधि चुनाव ।

3. उपचुनाव ।

सामान्य व आम चुनाव-

जब एक निश्चित अवधि के पश्चात किसी देश के केन्द्रीय संसद मंडल या राज्य विधान मंडल के लिये चुनाव होते हैं तो उसे आम चुनाव कहा जाता है।

लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के लिये प्रति वर्ष पाँच वर्ष पश्चात आम चुनाव होते हैं।

मध्याविधि चुनाव –

संवैधानिक संकट होने की स्थिति में जब लोक सभा या किसी राज्य की विधानसभा पाँच वर्ष की अवधि के मध्य में ही भंग कर दी जाती है, तो उसके लिये जो चुनाव आयोजित होते हैं उन्हें

मध्यावधि चुनाव कहते हैं। जैसे भारत में सन् 1971, 1977 एवं 1980 में लोकसभा में मध्यावधि चुनाव सम्पन्न हुए हैं।

उपचुनाव –

जब किसी विधान सभा सदस्य या लोकसभा के सदस्य का स्थान उसकी मृत्यु, पद त्याग या अन्य कारणों से रिक्त हो जाता है

तो इस हेतु जो चुनाव आयोजित होता है उसे उपचुनाव कहते हैं

जैसे-

विधायक श्री रविशंकर त्रिपाठी के निधन पर भटगांव विधानसभा क्षेत्र का सन् 2010 में उपचुनाव हुआ था।

इसी प्रकार छत्तीसगढ़ के कोटा में राजेन्द्र शुक्ला के निधन पर उपचुनाव सम्पन्न कराया गया था।

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Author: educationallof

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