मृदा प्रदूषण , कारण एवं उपाय

             मृदा प्रदूषण              [SOIL POLLUTION]

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मृदा प्रदूषण –

मिट्टी विभन्न प्रकार के खनिज तत्वों, कार्बनिक पदार्थों, गैसों एवं जल आदि तत्वों का एक निश्चित अनुपात में पाया जाने वाला मिश्रण है

परन्तु जब इस मिश्रण में मानव से अथवा अन्य किसी कारण से अनुपात भंग हो जाता है

अथवा ऐसे तत्व इसमें मिल जाते हैं जो इसकी सरंचना एवं गुणवत्ता को नष्ट कर देते हैं

तो मृदा संदूषित हो जाती है और उसके प्राकृतिक गुण समाप्त हो जाते हैं।

इसे मृदा प्रदूषण कहते हैं।

अतः मृदा के भौतिक, रासायनिक या जैविक गुणों में ऐसा अवांछनीय परिवर्तन जिसका प्रभाव मनुष्य एवं अन्य जीवों पर पड़ता है

मृदा की उपयोगिता में कमी हो जाती है या उसके उपयोगी गुणों में परिवर्तन हो जाता है,

तो यह मृदा प्रदूषण कहलाता है।

मृदा प्रदूषण के प्रमुख कारण तथा इसके स्त्रोत

[CAUSES OF SOIL POLLUTION AND ITS SOURCES]

मृदा प्रदूषण के कारणों को निम्नलिखत दो भागों में बाँटा गया है :-

(अ) प्राकृतिक कारण. (Natural Causes)

(ब) मानवीय कारण (Human Causes)

(अ) प्राकृतिक कारण (Natural Causes):-

मृदा प्रदूषण के प्राकृतिक कारण निम्नलिखित हैं-

(1) भूकम्प (Earthquake):-

भूकम्प कई बार मृदा प्रदूषण का कारण बनता है।

भूकम्प के कारण स्थान-स्थान पर दरार पड़ जाना, भूमिगत जल का प्रस्फुटन होना जैसी कई घटनाएँ हो जाती हैं

जिससे मृदा कृषि कार्य के लिए कई बार अनुपयुक्त हो जाती है।

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(2) ज्वालामुखी उद्‌गार (Volcanic eruption) :-

जिन स्थानों पर ज्वालामुखी फटता है वहाँ की मृदा ज्वालामुखी के लावे, राख इत्यादि के परिणामस्वरूप कई बार अपनी उपजाऊ शक्ति खो देती है।

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(3) वायु द्वारा भू-रक्षण (Soil erosion by wind):-

वायु भी भू-रक्षण और मृदा प्रदूषण का कारण बनती है।

तेज गति से बहती हुई वायु अपने साथ मृदा की ऊपरी सतह को उड़ा ले जाती है,

जिससे मृदा की उपजाऊ सतह में कमी आती है।

मरुस्थलों के समीपवर्ती क्षेत्रों में यह समस्या अत्यन्त गम्भीर स्वरूप धारण कर लेती है

क्योंकि इन क्षेत्रों में वायु रेत के टीलों का स्थानान्तरण करती है तथा मरुस्थलीय क्षेत्रों में वृद्धि करती है।

(4) तेज वर्षा (Heavy rainfall):-

तेज वर्षा भी मृदा प्रदूषण करती है।

जब तेज वर्षा होती है तो यह अपने बहाव के साथ मिट्टी का एक भाग बहाकर ले जाती है

जिससे मृदा अपरदन की समस्या उत्पन्न होती है तथा एक बड़ी मात्रा में उपजाऊ मृदा नष्ट हो जाती है।

(5) नदियों का तीव्र प्रवाह (Fast flow of rivers):-

नदियों का तीव्र प्रवाह भी मृदा प्रदूषण का एक महत्वपूर्ण कारण है।

नदियों पहाड़ी क्षेत्रों से मैदानी क्षेत्रों की ओर आते समय अपने तीव्र प्रवाह से मृदा के बड़े हिस्से को बहाकर ले जाती हैं,

जिससे इन क्षेत्रों में मृदा अपरदन की समस्या हो जाती है।

(ब) मानवीय कारण (Human Causes):-

अनेक मानवीय कारण भी मृदा प्रदूषण के लिए उत्तरदायी हैं। मृदा प्रदूषण हेतु उत्तरदायी मानवीय कारणों का वर्णन इस प्रकार है-

(1) व्यापक सिंचाई (Wide irrigation)-

मनुष्यों ने कृषि की मानसून तथा बरसात पर निर्भरता को कम करने हेतु सिंचाई के साधनों का विकास किया है।

सिंचाई के साधनों के अत्यधिक उपयोग ने भूमि में क्षारीयता (alkalinity) तथा जलक्रान्तता (waterlogging) जैसी समस्याओं को जन्म दिया है।

(2) मृदा में रसायनों का उपयोग (Use of Chemicals in soil) –

आधुनिक कृषि कार्य के समय अनेक प्रकार के रसायनों का प्रयोग उर्वरक, कीटनाशक और खरपतवार नाशकों के रूप में किया जाता है।

ये रसायन मृदा में पाए जाने वाले जैविक तत्वों को नष्ट कर देते हैं

जिससे मृदा की उपजाऊ शक्ति घट जाती है।

(3) औद्योगिक अपशिष्ट (Industrial wastes)-

औद्योगिक अपशिष्ट भी मृदा प्रदूषण का एक प्रमुख कारण है।

औद्योगिक प्रतिष्ठान उत्पादन प्रक्रिया के समय अनेक प्रकार के अपशिष्ट पदार्थ जल द्वारा निष्कासित करते है।

इन अपशिष्ट पदार्थों में अनेक प्रकार से रासायनिक तत्व और धातु तत्व विद्यमान रहते हैं

जिससे मृदा पर अत्यन्त विपरीत प्रभाव पड़ता है।

इससे मृदा की उपजाऊ शक्ति प्रभावित होती है।

(4) नगरीय अपशिष्ट (Urban wastes) –

नगरीय अपशिष्ट जिसमें कूड़ा-करकट और वाहित मल शामिल हैं,

भी मृदा प्रदूषण के एक प्रमुख स्त्रोत हैं।

नगरीय अपशिष्टों में भी अनेक प्रकार के प्रदूषक तत्व सम्मिलित रहते हैं जो मृदा की उपजाऊ शक्ति को नष्ट करते हैं।

(5) वन विनाश (Deforestation) –

वन विनाश का दुष्प्रभाव मृदा पर पड़ता है।

वनस्पति आवरण को हटा देने से मृदा अपरदन अधिक होता है।

मृदा में उपजाऊपन बढ़ाने वाले तत्व भी वनों से प्राप्त होते हैं।

वनस्पति आवरण के अभाव में मृदा में जैविक अंश धीर-धीरे कम हो जाते हैं जिससे मृदा प्रदूषित होती है।

(6) खनन (Mining) –

खनन से निकले मलबे को नजदीक भूमि पर डाल दिया जाता है जिससे मलबे के विशाल गर्त बन जाते हैं।

इमारती पत्थर, लौह अयस्क, अभ्रक, तांबा आदि खनिजों के उत्खनन से निकला मलबा भूमि की उर्वरा शक्ति को खत्म कर देता है।

वर्षा काल के दौरान यह मलबा दूर-दूर तक बहकर मृदा को प्रदूषित करता है।

(7) रेडियोधर्मी पदार्थ (Radioactive substances) –

अधिकांश परमाणु परीक्षण भूमिगत ही होते हैं।

अतः निकलने वाले रेडियोधर्मी तत्व भूमि में प्रविष्ट हो जाते हैं तथा भूमि को प्रदूषित कर देते हैं।

समुद्री प्रदूषण नियन्त्रण के उपाय

[MEASURES TO CONTROL MARINE POLLUTION]

समुद्री प्रदूषण के घातक प्रभावों को देखते हुए इस पर नियन्त्रण आवश्यक है।

अतः इस प्रदूषण को रोकने के लिए हमें निम्नलिखित महत्वपूर्ण कदम उठाने होंगे-

1. नदियों को कीटनाशकों, उर्वरकों, औद्योगिक बहिःस्त्रावों से मुक्त रखा जाए।

2. समुद्र के किनारे स्थापित उद्योगों, कारखानों, नगरों के बहिःस्त्रावों को उपचारित करने के बाद ही समुद्र में डाला जाए।

3. समुद्रों में मालवाहक जहाजों और तेल कुओं से होने वाले गम्भीर तेल रिसाव पर रोक के कारगर तरीके ढूँढ़े जाएँ।

4. परमाणु परीक्षणों पर रोक लगाई जाए।

5. परमाणु कचरे को समुद्र में विकसित करने से पहले उसका उचित उपचार कर लिया जाए।

मृदा प्रदूषण के प्रभाव

[EFFECTS OF SOIL POLLUTION]

मृदा प्रदूषण से जैव समुदाय पर दूरगामी प्रभाव पड़ते हैं।

प्रदूषण के कारण मृदा की उर्वरता में कमी आ जाती है तथा कृषि कार्य के लिए अनुपयुक्त होने लगती है।

मृदा प्रदूषण के कारण मानव, पेड-पौधों व सूक्ष्मजीवों पर पड़ने वाले प्रभाव निम्नलिखित हैं-

(1) मानव पर प्रभाव (Effect on human being):-

मृदा प्रदूषण के कारण मनुष्यों में स्वास्थ्य सम्बन्धी अनेकों समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं।

मृदा प्रदूषक खाद्य श्रृंखला के माध्यम से मानव शरीर में प्रवेश करने पर अनेक रोगों को जन्म देते हैं।

(1) आँत सम्बन्धी रोग (Intestinal diseases)-

विभिन्न प्रकार के खाद्य पदाथार्थों; जैसे-कच्ची सब्जियाँ, भूमिगत सब्जियाँ आदि का सेवन करने से अनेक जीवाणु

तथा विभिन्न प्रकार के सूक्ष्मकृमि मानव शरीर में प्रवेश कर जाते हैं और यह शरीर में विभिन्न प्रकार की बीमारियों;

जैसे-हैजा, टाइफाइड, एमिबायोसिस, डायरिया, आन्त्रशोथ, पेचिश आदि को जन्म देते हैं।

(II) टिटेनस (Tetanus)-

मिट्टी में उपस्थित मानवों एवं जन्तुओं के मलों के अंश टिटेनस बैसिलाई की उत्पत्ति के मुख्य स्त्रोत होतें हैं, जो टिटेनस रोग को जन्म देते हैं।

(III) अन्य रोग (Other diseases)-

मिट्टी में उपस्थित परजीवी कीड़ों के अण्डे व लार्या, फफूँद, बीजाणु टॉक्सिन,

जैसे रासायनिक पदार्थ, डी.डी.टी. एल्ड्रीन तथा आर्सेनिक यौगिक आदि प्रदूषक मानव में भयंकर रोगों की उत्पत्ति का कारण बनते हैं

जिनमें पीलिया, गिल्टी बनना आदि रोग प्रमुख है।

(2) वनस्पत्ति परं प्रभाव (Effect on vegetation):-

मृदा प्रदूषण के कारण वनस्पतियाँ अत्यन्त प्रभावित होती है।

प्रदूषण के कारण मिट्टी की उर्वरा शक्ति क्षीण हो जाती है, जिसके फलस्वरूप उनमें कोई भी वनस्पति नहीं उग पाती।

(3) अन्य जीव-जन्तुओं पर प्रभाव (Effect on other living-organisms):-

अनेक रासायनिक कीटनाशकों के प्रयोग के कारण मिट्टी में पाए जाने वाले लाभकारी नाइट्रोजनीकारक जीवाणु, केंचुए आदि जीव नष्ट हो जाते हैं।

प्रदूषित मृदा से हानिकारक रसायन खाद्य श्रृंखला के द्वारा जानवरों में पहुँच जाते हैं

जिससे उनके स्वास्थ्य पर गम्भीर प्रभाव पड़ता है।

(4) कृषि पर प्रभाव (Effect on agriculture):-

मृदा प्रदूषण के कारण कृषि सर्वाधिक प्रभावित होती है।

अनेक रासायनिक कीटनाशकों के प्रयोग के कारण मृदा प्रदूषण बढ़ता है

जिसके कारण मृदा की उर्वरा शक्ति क्षीण हो जाती है एवं मृदा अपरदन के कारण पोषक तत्व घट जाने से कृषि उत्पादन घट जाता है।

व्यापक सिंचाई तथा अधिक मात्रा में रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से भूमि में लवणता बढ़ती है

तथा अनेक अवांछित खनिजों की अधिकता के कारण भूमि की उर्वरा शक्ति क्षीण हो जाती है।

मृदा प्रदूषण नियन्त्रण के उपाय

[MEASURES TO CONTROL SOIL POLLUTION]

(1) मृदा संरक्षण (Soil conservation):-

मृदा ह्रास को रोकने के लिए मृदा संरक्षण अत्यन्त आवश्यक है।

मृदा संरक्षण हेतु व्यापक उपाय करने चाहिए।

इन उपायों में वृक्षों की कटाई तथा अनियन्त्रित पशुचारण पर रोक, फसल चक्रीकरण, समुचित सिंचाई, बाढ़ नियन्त्रण आदि प्रमुख है।

(2) ठोस अपशिष्टों का निस्तारण (Disposal of solid wastes):-

ठोस अपशिष्टों के निस्तारण हेतु

निम्नलिखित उपाय सार्थक हो सकते हैं-

(i) कूड़े-कचरे का विसर्जन मानव निवास स्थलों से दूर गर्तों में भरकर समतलीकरण के लिए करना चाहिए।

(ii) कूड़े-करकट का उपयोग विद्युत उत्पादन में किया जाना चाहिए।

(iii) कूड़े-करकट को गड्ढों में एकत्र करके सड़ाकर जैविक खाद बनाई जा सकती है।

(iv) पुनर्चक्रण की प्रक्रिया द्वारा कूड़े-कंचरे को पुनः उपयोग में भी लाया जा सकता है।

इसमें कागज के टुकड़े, लोहे के टुकड़े, प्लास्टिक आदि स्वरूप बदलकर पुनः उपयोग में लाया जा सकता है।

(v) भस्मीकरण की प्रक्रिया द्वारा भी अपशिष्टों का निस्तारण किया जाता है।

इसमें अपशिष्टों को जलाकर काँच समाप्त किया जाता है

परन्तु भस्मीकरण की विधि से वायु प्रदूषण की सम्भावना रहती है।

(3) फसलों पर जहरीले कीटनाशकों का छिड़काव विवेकपूर्ण ढंग से किया जाए।

(4) डी.डी.टी. का प्रयोग प्रतिबन्धित हो।

(5) सिंचाई और उर्वरकों का प्रयोग करने से पहले मिट्टी और पानी की जाँच करा लेनी चाहिए।

(6) रासायनिक उर्वरकों के स्थान पर कम्पोस्ट तथा हरी खाद (compost and green manuring) के प्रयोग को वरीयता देनी चाहिए।

(7) खेतों में पानी के निकास की समुचित व्यवस्था की जानी चाहिए।

(8) खेतों के किनारे और ढालू भूमि पर वृक्षारोपण किया जाना चाहिए।

(9) रेडियोधर्मी पदार्थों से होने वाले भूमि प्रदूषण से बचने के लिए भूमिगत परमाणु परीक्षणों पर तुरन्त रोक लगाने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रयास होने चाहिए।

रेडियोधर्मी अपशिष्टों को जमीन में गाड़ने पर प्रतिबन्ध लगाना चाहिए।

(10) प्लास्टिक थैलियों के उपयोग पर प्रतिबन्ध लगाना चाहिए।

(11) उर्वरकों एवं कीटनाशकों/खरपतवारनाशकों का प्रयोग करने का प्रशिक्षण किसानों को टी. व्ही. समाचार-पत्र अथवा रेडियो के माध्यम से देना चाहिए।

भू-प्रदूषण को रोकना आज की एक की महत्वपूर्ण आवश्यकता है,

क्योंकि खाद्य, पेय पदार्थ, कच्चे माल, आहार, जल एवं अन्य सभी प्रकार की सामग्रियाँ मृदा की गुणवत्ता पर निर्भर करती है।

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