प्रथम विश्व युद्ध
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प्रथम विश्व युद्ध –
सन् 1914 में यूरोप में एक ऐसा युद्ध आरंभ हुआ जिसने पूरे विश्व को अपने प्रभाव क्षेत्र में समेट लिया।
इस युद्ध से जितना विनाश हुआ उतना मानव इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ था।
सन् 1914 में आरंभ होने वाला युद्ध एक सर्व व्यापी युद्ध था जिसमें युद्धरत् देशों ने अपने सारे संसाधन झोंक दिए।
इसका पूरी दुनिया की अर्थ व्यवस्था पर प्रभाव पड़ा।
इस युद्ध में असैनिक क्षेत्रों पर हुई बमबारियों से हुई तबाही, अकाल और महामारियों से जितने आम लोगों की जानें गईं उनकी संख्या युद्ध में मारे गए सैनिकों से कहीं अधिक थी।
इस अभूतपूर्व युद्ध ने दुनिया के इतिहास को एक नया मोड़ दिया। इस युद्ध की लड़ाइयाँ यूरोप, एशिया, अफ्रीका और प्रशान्त क्षेत्र में लड़ी गई थी।
इसके वृहत् फैलाव और इसकी सर्वांगिक प्रकृति के कारण इसे ‘विश्व युद्ध’ कहा जाता है।
अति व्यापक दीर्घ कालिक दुष्परिणाम देने वाले महायुद्ध को विश्व इतिहास में दो बार लड़े जा चुके हैं, जिन्हें क्रमशः प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध कहते हैं।
प्रथम विश्व युद्ध के कारण –
(1) साम्राज्यवादी शक्तियों में आपसी कलह –
युद्ध का मूल कारण थी- साम्राज्यवादी देशों की आपसी प्रतिस्पर्द्धाएँ और टकराव ।
एशिया, अफ्रीका के क्षेत्रों पर अधिकार करने के लिए यूरोप के साम्राज्यवादी देशों में टकराव होते रहते थे।
कभी-कभी साम्राज्यवादी देश आपस में “शान्तिपर्ण निपटाया” कर लेते थे
और एक दूसरे के खिलाफ बल प्रयोग – किए बिना एशिया या अफ्रीका के विभिन्न – भागों को आपस में बाँट लेते थे।
कई बार – आपसी टकराव के कारण युद्ध की परिस्थितियाँ – भी पैदा हो जाती थीं।
19वीं सदी के अंत तक स्थिति बदल चुकी थी।
एशिया और अफ्रीका के अधिकांश भागों को साम्राज्यवादी देश आपस में बाँट चुके थे
और आगे विजय का एक ही रास्ता था कि किसी साम्राज्यवादी देश से उसके उपनिवेश छीने जाएँ।
इसलिए 19वी सदी के अन्तिम दशक के बाद के दौर में साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धाओं के कारण विश्व को पुनर्विभाजित करने के प्रयास होने लगे
जिससे युद्ध की परिस्थितियाँ पैदा हुई।
(2) उपनिवेशों के लिए संघर्ष –
जर्मनी के एकीकरण के बाद उसका बहुत अधिक आर्थिक विकास हुआ था।
1914 के आते आते वह लोहे और इस्पात तथा बहुत सी औद्योगिक वस्तुओं के उत्पादन में ब्रिटेन और फ्रांस को बहुत पीछे छोड़ चुका था।
जर्मनी उपनिवेशों की दौड़ में बहुत बाद – में शामिल हुआ था और इसलिए उसे कम ही उपनिवेश हाथ लगे थे ।
जर्मन साम्राज्यवादियों ने पूर्व में पाँव फैलाने की सोची।
उसकी महत्वाकांक्षा थी-पतनशील उस्मानिया (तुर्की) साम्राज्य की अर्थ व्यवस्था पर अपना नियंत्रण स्थापित करना।
इसके लिए उसने बर्लिन से बगदाद तक एक रेल – लाईन बिछाने की योजना बनाई।
इस योजना से ब्रिटेन, फ्रांस और रूस डर गए, क्योंकि इस रेल लाईन के तैयार होने पर उस्मानिया साम्राज्य से संबंधित उनकी साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं को धक्का लगता।
जर्मनी की तरह यूरोप की सभी प्रमुख शक्तियों और जापान की भी अपनी-अपनी साम्राज्यवादी महत्वकांक्षाएँ थीं।
इटली जो एकीकरण के बाद फ्रांस जितना ही शक्तिशाली बन चुका था, उत्तरी अफ्रीका स्थित त्रिपोली पर नजरें गड़ाए था जो उस्मानिया साम्राज्य का क्षेत्र था।
फ्रांस अफ्रीका के अपने साम्राज्य में मोरक्को को भी शामिल करना चाहता था।
रूस की ईरान, कुस्तुतुनिया समेत उस्मानिया साम्राज्य के इलाकों, सुदूर पूर्व और अन्य जगहों से सम्बंधित अपनी महत्वाकांक्षाएँ थीं।
रूस की महत्वाकांक्षाओं का ब्रिटेन, जर्मनी और आस्ट्रिया के हितों और महत्वाकांक्षाओं से टकराव हो रहा था।
जापान भी तब तक एक साम्राज्यवादी देश बन चुका था।
सुदूर पूर्व में उसकी अपनी महत्वाकाक्षाएँ थीं और वह इन्हें पूरा करने के लिए कदम भी उठा चुका था।
ब्रिटेन के साथ एक समझौता करने के बाद उसने 1904-1905 में रूस को हराया जिससे सुदूर पूर्व में उसका प्रभाव बहुत बढ़ गया।
ब्रिटेन का दूसरे सभी साम्राज्यवादी देशों से टकराव हो रहा था, क्योंकि उसके पास पहले से ही एक बहुत बड़ा साम्राज्य था और उसकी रक्षा करना आवश्यक था।
जब कभी किसी देश की शक्ति बढ़ती थी उसे ब्रिटिश साम्राज्य के लिए खतरा समझा जाता था।
ब्रिटेन का अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार भी बहुत फैला हुआ था और इस व्यापार की रक्षा उसे प्रतियोगी देशों से करनी पड़ती थी।
साथ ही उसे अपने साम्राज्य के व्यापार मार्गों की रक्षा भी करनी थी।
उस्मानिया साम्राज्य के बारे में आस्ट्रिया की महत्वाकांक्षाएँ थीं। संयुक्त राज्य अमेरिका भी 19वीं सदी के अन्त तक एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में उभर चुका था।
उसने फिलीपाइन को हड़प लिया था।
चूँकि उसका व्यापार बहुत तेजी से बढ़ रहा था इसलिए उसकी मुख्य दिलचस्पी व्यापार की स्वतंत्रता बनाए रखने में थी।
दूसरी बड़ी ताकतों के प्रभाव का बढ़ना अमरीकी हितों के लिए खतरा समझा जाता था।
(3) यूरोप में संघर्ष –
यूरोप की प्रमुख शक्तियों के बीच उपनिवेशों और व्यापार को लेकर टकराव तो थे ही, साथ ही यूरोप के अंदर होने वाली कुछ घटनाओं को लेकर भी टकराव थे।
उस समय यूरोप में छह प्रमुख शक्तियाँ थीं- ब्रिटेन, जर्मनी, ऑस्ट्रिया-हंगरी, रूस, फ्रांस और इटली ।
एक प्रश्न जिसमें ये सभी देश उलझ गए, वह था-यूरोप के बाल्कन प्रायद्वीप के देशों का प्रश्न ।
बाल्कन प्रायद्वीप के देश उस्मानिया साम्राज्य के अधीन थे मगर 19वीं सदी में उस्मानिया साम्राज्य का पतन आरम्भ हो चुका था।
स्वाधीनता के लिए अनेक जातियाँ इस साम्राज्य के विरूद्ध विद्रोह कर रही थीं।
रूस के जारों को आशा थी कि इन क्षेत्रों से उस्मानी तुर्की का शासन समाप्त होने के बाद ये रूस नियंत्रण में आ जाएँगे।
उन्होंने सर्व स्लाव नामक एक आंदोलन को बढ़ावा दिया जो इस सिद्धान्त पर आधारित था कि पूर्वी यूरोप के सभी स्लांव एक जनगण के लोग हैं।
स्लाव आस्ट्रिया हंगरी के अनेक क्षेत्रों में भी रहते थे।
इसलिए रूस ने उस्मानिया साम्राज्य और आस्ट्रिया-हंगरी दोनों के खिलाफ आन्दोलन को बढ़ावा दिया।
उस्मानिया साम्राज्य और आस्ट्रिया स्लाव बहुल क्षेत्रों को एक करने के आन्दोलन का नेतृत्व बल्कान प्रायद्वीप का एक प्रमुख देश सर्बिया कर रहा था।
रूस के बढ़ते प्रभाव को देखकर यूरोप की दूसरी प्रमुख शक्तियाँ चौकन्नी हो गई।
वे रूस के प्रभाव को बढ़ने से रोकना चाहती थीं।
जबकि आस्ट्रिया-हंगरी इस क्षेत्र में अपना पाँव फैलाना चाहता था।
सर्व-स्लाव आन्दोलन की तरह एक सर्व-जर्मनी आन्दोलन भी चला जिसका उद्देश्य जर्मनी के प्रभाव को पूरे मध्य यूरोप और बल्कान क्षेत्र में फैलाना था।
इटली ने कुछ ऐसे क्षेत्रों पर दावा किया जो उस समय आस्ट्रिया के अधीन थे।
फ्रांस अपने अल्सास-लारेन प्रांतों को वापस पाना चाहता था जो उसे सन् 1871 ई. में जर्मनी को देने पड़े थे।
इसके अलावा जर्मनी के साथ सन् 1870-71 ई. के युद्ध में उसकी जो शर्मनाक हार हुई थी वह उसका बदला भी लेना चाहता था।
(4) गुटों का निर्माण –
यूरोप में उपनिवेशों को लेकर होने वाले जिन टकरावों का वर्णन किया जा चुका है,
उनके कारण 19वीं सदी के अंतिम दशक और उसके बाद के काल में यूरोप में तनाव की स्थिति पैदा हो गई।
यूरोप के देश अब परस्पर विरोधी गुटों में शामिल होने लगे।
अपनी सैनिक शक्ति बढ़ाने, अपनी सेनाओं और नौ सेनाओं की संख्या बढ़ाने,
नए और पहले से अधिक घातक हथियार विकसित करने तथा आमतौर पर युद्ध की तैयारियाँ करने पर वे अपार धन खर्च करने लगे।
यूरोप अब धीरे-धीरे विशाल सैनिक शिविर बनता जा रहा था।
20वीं सदी के पहले दशक में इन देशों के दो परस्पर विरोधी गुट बन गए और वे अपनी-अपनी सैनिक शक्ति के साथ एक दूसरे के मुकाबले के लिए तैयार हो गए।
तीन देशों ने मिलकर 1882 में एक त्रिगुट (ट्रिपल एलायंस) बना लिया था, जिसमें जर्मनी, आस्ट्रिया-हंगरी और इटली शामिल थे।
मगर इस गुट के प्रति इटली की वफादारी संदिग्ध थी क्योंकि उसका मुख्य उद्देश्य यूरोप में आस्ट्रिया हंगरी से कुछ इलाके छीनना और फ्रांस की सहायता से त्रिपोली को जीतना था।
इस त्रिगुट के विरोध में फ्रांस, रूस और ब्रिटेन ने 1907 में एक त्रिदेशीय संधि (ट्रिपल एन्तेंत) की।
जैसा कि शब्द “एन्ता” (इसका शाब्दिक अर्थ है- आपसी समझदारी) से स्पष्ट है,
यह सन्धि सिद्धान्त रूप से आपसी समझ पर आधारित एक ढीला-ढाला गठजोड़ थी।
इन दो परस्पर विरोधी गुटों के उदय से यह निश्चित हो गया था कि अगर इनमें से कोई भी देश किसी टकराव में उलझता है
तो यह टकराव एक अखिल यूरोपीय युद्ध में बदल जाएगा।
युद्ध में ठीक पहले के वर्षों में एक के बाद एक संकट आए।
इन संकटों के कारण यूरोप में तनाव और कड़वाहट में वृद्धि हुई और राष्ट्रीय श्रेष्ठतावाद का जन्म हुआ।
यूरोपीय देश दूसरों के इलाके पाने के लिए आपस में गुप्त समझौते भी करने लगे।
इन समझौतों का अक्सर ही भंडाफोड़ा जाता था।
इन्हें लेकर हर देश में भय और शंका का वातावरण और भी तीखा हो जाता था।
ऐसे भय और शंकाओं के कारण युद्ध की घड़ी और भी पास आ गई।
युद्ध का आरंभ (तात्कालिक कारण):-
युद्ध का आरंभ एक मामूली घटना से हुआ। अगर यूरोप वर्षों से युद्ध की तैयारी कर रहे दो परस्पर विरोधी सैनिक शिविरों में न बँटा होता
तो इस घटना से कोई खास तहलका नहीं मचता।
28 जून 1914 को आर्कड्यूक फ्रांसिस फर्डीनांड की बोस्निया की राजधानी में हत्या हो गई।
(स्मरणीय है कि कुछ ही वर्ष पहले आस्ट्रिया ने बोस्निया को हड़प लिया था)
फर्डीनांड आस्ट्रिया-हंगरी की गद्दी का उत्तराधिकारी था।
आस्ट्रिया ने इस हत्या में सर्बिया का हाथ देखा और अपनी कुछ माँगें उस पर थोप दीं,
न मानने पर युद्ध की चेतावनी दी।
सर्बिया ने इस एक मांग को मानने से इंकार कर दिया क्योंकि वह उसकी पूर्ण स्वतंत्रता के विरूद्ध था,
फलतः 28 जुलाई 1914 ई. को ऑस्ट्रिया ने सर्बिया के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।
रूस ने सर्बिया को पूर्ण सहायता का वादा किया था और इसलिए वह भी युद्ध की तैयारी करने लगा।
जर्मनी ने 01 अगस्त को रूस और 3 अगस्त को फ्रांस के विरूद्ध युद्ध की घोषणा की।
फ्रांस पर दबाव डालने के लिए जर्मन सेनाएँ 4 अगस्त को बेल्जियम में घुस गईं।
उसी दिन ब्रिटेन ने भी जर्मनी के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।
अनेक दूसरे देश भी लड़ाई में शामिल हो गए।
सुदूर-पूर्व में जर्मनी के उपनिवेश हथियाने के उद्देश्य से जापान ने जर्मनी के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।
तुर्की और बुल्गारिया जर्मनी की तरफ हो गए।
त्रिगुट का सदस्य होने के बावजूद इटली कुछ समय तक तटस्थ बना रहा।
1915 ई. में वह जर्मनी और आस्ट्रिया-हंगरी के विरूद्ध युद्ध में शामिल हुआ।
मित्र राष्ट्रों के लिए यह ऐसा महान लाभ था जिससे शक्ति का पलड़ा उनकी ओर झुक गया।
प्रथम विश्व युद्ध की प्रमुख घटनाएँ –
1. युद्ध का आरंभः-
जर्मनी को आशा थी कि वह बेल्जियम पर बिजली की तरह मार करके वह फ्रांस पर हमला कर देगा
और उसे कुछ ही हफ्तों में हरा देगा और तब वह रूस से उलझेगा।
कुछ समय तक ऐसा लगा कि यह योजना सफल हो रही है।
जर्मन सेना पेरिस से मात्र 20 किलो मीटर की दूरी तक आ पहुँची।
रूस ने जर्मनी और आस्ट्रिया पर हमले आरंभ कर दिये थे इसलिए कुछ जर्मन सेना पूर्वी मोर्चे पर भी भेजनी पड़ी।
जल्द ही फ्रांस की तरफ सेनाओं का बढ़ना रूक गया और यूरोप में युद्ध में लम्बे समय के लिए गतिरोध पैदा हो गया।
इस बीच युद्ध दुनिया के कई दूसरे भागों तक फैल गया और पश्चिमी एशिया अफ्रीका और सुदूर पूर्व में भी लड़ाइयाँ होने लगीं।
जर्मन सेनाओं का बढ़ना रूक जाने के बाद एक नए प्रकार का युद्ध आरंभ हो गया।
परस्पर भिड़ रही सेनाएं खंदकें खोदकर, वहाँ से एक दूसरे पर छापे मारने लगीं।
पूर्वी मोर्चे पर आस्ट्रिया को रूस के हमले असफल बनाने और रूसी साम्राज्य के कुछ भागों पर कब्जा करने में सफलता मिली।
यूरोप से बाहर फिलिस्तीन, मोसोपोटामिया और अरब में उस्मानिया साम्राज्य और जर्मनी तथा तुर्की के विरूद्ध अभियान संगठित किए गए।
जर्मनी तथा तुर्की के विरूद्ध भी अभियान संगठित किये गये।
जो ईरान में अपना प्रभाव स्थापित करना चाहते थे।
पूर्वी एशिया में जापान ने जर्मनी के अधिकार क्षेत्रों पर कब्जा कर लिया और अफ्रीका में ब्रिटेन तथा फ्रांस ने अधिकांश जर्मन उपनिवेश हथिया लिए।
2. युद्ध में नए एवं भयंकर हथियारों का प्रयोग:-
इस युद्ध में अनेक नए हथियारों का उपयोग किया गया। इस तरह के दो हथियार थे – मशीनगन और तरल अग्नि (लिक्विड फायर)।
युद्ध में पहली बार आम जनता को मारने के लिए हवाई जहाजों का उपयोग किया गया।
अंग्रेजों ने टैंकों का प्रयोग किया जो आगे चलकर युद्ध के प्रमुख हथियार बन गए।
दोनों युद्धरत गुटों ने एक-दूसरे तक खाद्यान्न, कारखानों के कच्चे माल तथा हथियारों को पहुंचने से रोकने की कोशिश की।
इस काम में समुद्री युद्ध की प्रमुख भूमिका रही।
जर्मनी ने बड़े पैमाने पर यू-बोट नामक पनडुब्बियों का उपयोग किया।
इसका उद्देश्य दुश्मन के जहाजों को ही नहीं, बल्कि ब्रिटिश बंदरगाहों की ओर बढ़ रही तटस्थ नौकाओं को भी नष्ट करना था।
इस युद्ध में जहरीली गैसों का भी उपयोग किया गया जो एक और भयानक हथियार था।
युद्ध लम्बा खिंच गया और इससे लाखों जानें गयीं और अरबों की धन व सम्पत्ति नष्ट हुई।
3. संयुक्त राज्य अमेरिका युद्ध में शामिल:-
6 अप्रैल 1917 को संयुक्त राज्य अमेरिका ने जर्मनी के विरूद्ध युद्ध की घोषणा की।
यद्यपि अमेरिका दोनों गुट के देशों के लिए हथियारों और दूसरी आवश्यक वस्तुओं का प्रमुख स्त्रोत बन चुका था।
किन्तु 1915 ई. जर्मनी की यू-बोट ने ‘लुसितानिया’ नामक एक ब्रिटिश जहाज को डुबो दिया था।
मरने वाले 1153 यात्रियों में 128 अमेरिकी भी थे।
इस घटना के बाद अमेरिका में जर्मन विरोधी भावनाएं भड़क उठी और अमेरिका भी युद्ध में शामिल हो गया।
रूस का युद्ध से अलग होना 1917 की एक और प्रमुख घटना थी- अक्टूबर क्रान्ति और उसके बाद रूस का युद्ध से हट जाना।
रूसी क्रान्तिकारी आरंभ से ही युद्ध का विरोध करते आए थे।
लेनिन के नेतृत्व में उन्होंने फैसला किया था कि वे रूसी निरंकुश शासन को उखाड़ फेककर सत्ता पर कब्जा करने के लिए इस युद्ध को एक क्रान्तिकारी युद्ध में बदल देंगे।
युद्ध में रूसी साम्राज्य को भारी नुकसान उठाना पड़ा था।
रूस के छह लाख से अधिक सैनिक मारे जा चुके थे।
जिस दिन बोलशेविक सरकार सत्ता में आयी उसके दूसरे दिन उसने शान्ति प्रस्ताव जारी किया
जिसमें दूसरे के क्षेत्रों को लिए बिना और युद्ध के हरजाने के लिए शान्ति स्थापित करने के प्रस्ताव रखे थे।
रूस ने युद्ध से हट जाने का फैसला किया।
मार्च 1918 में जर्मनी के साथ एक शान्ति संधि के साथ ही रूस युद्ध से बाहर हो गया।
युद्ध की समाप्ति –
युद्ध को समाप्त कराने के लिए अनेक प्रयास किए गए।
अमेरिका के राष्ट्रपति वुडरो विल्सन ने जनवरी 1918 में शान्ति का एक कार्यक्रम सामने रखा।
यह राष्ट्रपति विल्सन के “चौदह सूत्रों” के नाम से विख्यात हुआ।
जिसका विवरण निम्नलिखित है:-
1. गुप्त संधियों का परित्याग।
2. सभी देशों का सभी समुद्री मार्गों का स्वतंत्र रूप से प्रयोग करना।
3. राष्ट्रों के मध्य खुलेतौर पर बातचीत हो और संधियाँ की जाए।
4. हथियारों के निर्माण, में कटौती हो।
5. जर्मनी बेल्जियम से हट जाए।
6. फ्रांस को आल्सेस और लारेन के प्रांत वापस लौटा दिए जाए।
7. यूरोप में राष्ट्रीयता के आधार पर कुछ नये देशों का निर्माण किया जाए।
8. अंतर्राष्ट्रीय शान्ति के लिए राष्ट्र संघ की स्थापना की जाए।
9. उपनिवेशों के दावों को पुनः निष्पक्ष रूप से तय किया जाए।
10. हारे हुए राष्ट्रों से हरजाने के रूप में धनराशि ली जाए।
11. जर्मनी और फ्रांस के बीच लगने वाले राइन नदी के क्षेत्र को पूरी तरह सेना रहित कर दिया जाए।
12. दोषी राष्ट्रों की सैनिक संख्या तय कर दी जाए।
13. सार नामक कोयले का क्षेत्र फ्रांस को दे दिया जाए।
14. बेल्जियम को स्वतंत्र कर दिया जाए।
विल्सन का चौदह सूत्री कार्यक्रम –
शांति व्यवस्था बहाल करने के लिये लागू किया गया पर इसमें निम्न कमियाँ थीं –
(1) अस्त्र शस्त्रों में कटौती के नियम को समानता से लागू नहीं किया गया।
हारने वाले देशों- जर्मनी, आस्ट्रिया-हंगरी तथा टर्की आदि की सैन्य शक्ति कम कर दी गयी।
लेकिन विजेता देशों पर कोई अंकुश नहीं लगाया गया।
(2) संधि की शर्तें पराजित और विजित राष्ट्रों की आपसी बातचीत का परिणाम न थी।
यह शर्तें तो विजित राष्ट्रों द्वारा पराजित राष्ट्रों पर बलपूर्वक थोपी गयी थीं।
पेरिस की शान्ति संधियाँ –
जनवरी और जून 1919 के बीच विजयी शक्तियों (मित्र राष्ट्रों) का एक सम्मेलन पहले पेरिस के उपनगर वरसाई में और फिर मेरिस में हुआ।
यद्यपि इस सम्मेलन में 27 देश भाग ले रहे थे।
मगर शान्ति सन्धियों की शर्तें केवल तीन देश ब्रिटेन, फ्रांस और अमेरिका तय कर रहे थे।
शान्ति संधियों की शर्तें निर्धारित करने में जिन तीन व्यक्तियों ने निर्णायक भूमिका निभायी,
वे थे- अमेरिकी राष्ट्रपति वुडरों विल्सन, ब्रिटेन के प्रधानमंत्री लॉयड जार्ज और फ्रांस के प्रधानमंत्री जार्ज क्लेनेंशों।
सम्मेलन में पराजित देशों को कोई प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया।
विजेता देशों के सम्मेलन से रूस को भी बाहर रखा गया।
इस तरह इस संधि की शर्तें पराजित और विजेता देशों के बीच बातचीत के द्वारा नहीं तय हुई बल्कि वे विजेताओं द्वारा पराजित देशों पर लादी गई।
शान्ति संधियों में वर्साय की संधि, जो 28 जून 1919 को जर्मनी के साथ हुई, विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
इसमें जर्मनी और उसके मित्र राष्ट्रों को युद्ध छेड़ने का दोषी घोषित किया गया।
जर्मनी को विवश किया गया कि वह वर्साय की संधि पर हस्ताक्षर करे।
खेद की बात तो यह है कि 27 विजेता देशों के प्रतिनिधि इसमें शामिल थे परन्तु जर्मनी का कोई प्रतिनिधि नहीं बुलाया गया था
जिससे कि उसका संधि पत्र पर कोई विरोध हो।
वर्साय की संधि की प्रमुख शर्त निम्नलिखित थी –
(1) जर्मनी से आल्सेस और लॉरेन के प्रान्त वापस लेकर फ्रांस को दे दिए गए।
(2) आस्ट्रिया और जर्मनी के बहुत से इलाकों को लेकर पोलैण्ड और चेकोस्लोवाकिया नामक दो नए राज्यों का निर्माण किया गया।
(3) जर्मनी के बीच का कुछ भाग पोलैण्ड के हवाले कर दिया गया।
इस प्रकार जर्मनी के दो भाग कर दिए गए।
(4) यूरोप के बाहर जर्मनी के अधीन बस्तियों का बँटवारा ब्रिटेन फ्रांस व जापान आदि देशों ने आपस में कर लिया।
(5) पोलैण्ड तथा अन्य देशों के प्रयोग के लिए जर्मनी का डानजिंग बन्दरगाह खोल दिया गया।
(6) जर्मनी के कुछ भाग डेनमार्क और बेल्जियम को दे दिए गए।
(7) आस्ट्रिया के बहुत से क्षेत्र इटली आदि देशों को दे दिए गए।
(8) हंगरी का राज्य आस्ट्रिया से अलग कर दिया गया।
(9) बल्गारिया के कई प्रदेश यूनान, रूमानिया और यूगोस्लाविया के हवाले कर दिए गए।
(10) युद्ध में मित्र राष्ट्रों को जो हानियाँ और क्षतियाँ हुई थी उसका हरजाना भी जर्मनी को भरना पड़ा।
उसके लिए 6 अरब 50 करोड़ पौंड की भारी रकम निश्चित की गई।
(11) जर्मनी की स्थल सेनाएँ घटा कर बेहद कम कर दी गई।
वह एक लाख की स्थल सेनाऐं और 15,000 की नौसेना ही रख सकता था।
इसके अलावा मात्र 6 युद्धपोत, 6 हल्के क्रूज तथा 12 तार पीडो, नौकाऐं रखने की अनुमति ही उसे दी गई।
वायु सेनाऐं और वायुयान रखने की स्वीकृति उसे नहीं दी गई।
अन्य संधियाँ –
(1) आस्ट्रिया के साथ सेण्ट जर्मेन की सन्धि (10 सितंबर 1919)
(2) बुल्गारिया के साथ न्यूइली की सन्धि (27 नवंबर 1919) |
(3) तुर्की के साथ सेब्रे की सन्धि (10 अगस्त 1920) ।
(4) हंगरी के साथ त्रिआनो की संधि 4 जून 1920 |
शांति सम्मेलन का मूल्यांकन –
1. सन्धि की शर्तें पराजित राष्ट्रों के लिए अत्यधिक कठोर थीं।
2. यह विजेताओं द्वारा पराजितों पर जबरदस्ती आरोपित संधि थी।
3. संधि के माध्यम से मित्र राष्ट्रों का उद्देश्य जर्मनी से प्रतिशोध लेना था।
(4) पराजित राष्ट्रों से युद्ध क्षतिपूर्ति की राशि को भी अत्यधिक रखा गया था।
(5) आत्मनिर्णय के सिद्धान्तों की अवहेलना की गई।
जर्मनी जैसे बेहद स्वाभिमानी राष्ट्र के घोर अपमान वाली इस संधि में द्वितीय विश्व युद्ध के बीज निहित थे।
संधि के संबंध में मार्शल फॉश का कथन था कि “यह सन्धि नहीं, केवल 20 वर्षों के लिए एक युद्ध-विराम-पत्र है।”
राष्ट्र संघ –
राष्ट्र संघ की स्थापना-शान्ति सन्धियों का एक मूर्त प्रयास था जिसके प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित थेः-
1) शान्ति सम्मेलन द्वारा स्थापित व्यवस्था को कायम रखना।
(2) मनुष्य मात्र के कल्याण के उपाय करना।
(3) युद्ध रोकना तथा शान्ति को बनाये रखना।
(4) निःशस्त्रीकरण के लिए प्रयत्न करना।
(5) राष्ट्रों के पारस्परिक झगड़ों तथा विवादों को शान्ति मय उपायों से हल करना।
राष्ट्र संघ का संगठन –
राष्ट्र संघ के प्रमुख पाँच अंग थे, जिनके आधार पर कार्य सम्पादन होता था-
1. महासभा
2. परिषद
3. सचिवालय
4. अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय
5. अन्तर्राष्ट्रीय श्रमिक संघ
राष्ट्र संघ के कार्य –
राष्ट्र संघ को अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति की स्थापना के अतिरिक्त अन्य कार्य सौंपे गए थे वे इस प्रकार थे:-
1. प्रशासन संबंधी कार्य ।
2. अधिवेशन कार्य।
3. अल्पसंख्यकों का संरक्षण।
4. गैर राजनीतिक कार्य।
राष्ट्र संघ की असफलता के कारण:-
राष्ट्र संघ की स्थापना अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को शान्तिपूर्ण ढंग से निपटाने और भविष्य में युद्धों को रोकने के लिए की गई थी।
इसमें राष्ट्र संघ सफल नहीं हुआ।
इसकी असफलता के मुख्य कारण निम्नानुसार थे:-
(1) राष्ट्र संघ की वैधानिक दुर्बलता।
(2) संयुक्त राज्य अमेरिका का असहयोग ।
(3) वर्साय की संधि से जुड़ा होना।
(4) अधिनायकों का उदय।
(5) राष्ट्र संघ का सार्वभौम न होना।
(6) निःशस्त्रीकरण के प्रयासों की असफलता।
(7) आर्थिक मन्दी।
(8) उग्र राष्ट्रीयता की भावना।
(9) राष्ट्र संघ के सदस्यों के परस्पर विरोध श्री हित।
(10) राष्ट्र संघ के सदस्य जनता का प्रतिनिधित्व नहीं करते थे।
दो विश्व युद्धों के बीच यूरोप में घटी घटनाओं ने यूरोप के अन्दर जो प्रादेशिक विवाद उत्पन्न किये थे
उन्होंने 20 साल बाद ही द्वितीय विश्व युद्ध के लिए महत्व पूर्ण कारणों को जन्म दिया।
प्रथम विश्व युद्ध के परिणाम –
प्रथम विश्व युद्ध उस समय तक विश्व में हुए सभी युद्धों से अधिक भयावह था।
इसके परिणाम केवल यूरोप को ही प्रभावित करने बाले नहीं थे, वरन सम्पूर्ण विश्व को प्रभावित करने वाले थे।
इस युद्ध के परिणाम निम्नलिखित है।
(1) अपार धनजन की हानिः-
इस युद्ध में लड़ने वालों की संख्या विस्मयकारी थी।
विभिन्न अनुमानों के अनुसार 45 करोड़ से भी अधिक लोग इस युद्ध से प्रभावित हुए।
लड़ाई में मारे गए एवं घायलों की संख्या भी करोड़ों में थी इसमें लाखों भारतीय सैनिकों को ब्रिटिश सेनाओं की ओर से लड़ने के लिए भेजा गया था।
हवाई हमलों, अकालों और महामारी से भारी संख्या में असैनिक लोग मारे गए।
दोनों पक्षों को भारी धन की हानि हुई।
(2) राजनीतिक परिणाम-
इस युद्ध तथा इसके बाद की शान्ति सन्धियों ने दुनियाँ का और मुख्यतः यूरोप का नक्शा ही बदल कर रख दिया।
युद्ध के पश्चात् यूरोप में निम्नलिखित राजनीतिक परिवर्तन हुए:-
(1) यूरोप के निरंकुश राजतंत्रों का अन्त हो गया।
(2) गणतंत्रों का उदय ।
(3) राष्ट्रवाद एवं राष्ट्रीयता की भावना ऐ का तेजी से प्रसार हुआ।
(4) नवीन गणतन्त्रों की प्रवृत्ति अधिनायक वादी हो गई।
(5) राष्ट्र संघ की स्थापना।
(6) रूस में साम्यवादी सिद्धान्तों के आधार पर नई शासन व्यवस्था की स्थापना।
(3) सामाजिक परिणामः-
(1) स्त्रियों की स्थिति में सुधार हुआ।
(2) सामाजिक असमानता का अन्त हो गया।
(4) धर्म के प्रति आस्था का कम होना:-
जनता धर्म को राजनीति से पृथक समझने लगी। ईश्वरीय सत्ता की उपेक्षा भी न की जाने लगी।
(5) विज्ञान की प्रगतिः-
वैज्ञानिकों ने अनेक उपयोगी आविष्कार किए।
उग्र राष्ट्रवाद के कारण विनाशकारी एवं विध्वंसकारी अस्त्र शस्त्रों का भी निर्माण किया गया।
(6) सांस्कृतिक परिणामः-
राष्ट्रों की ऐतिहासिक कला-कृतियों, स्मारकों, भवनों, नगरों का विनाश हो गया।
युद्ध के पश्चात् अन्तर्राष्ट्रीय संस्कृति को प्रोत्साहन मिला।
(7) भावी युद्ध के बीजः –
ऐसी धारणा थी कि प्रथम विश्वयुद्ध के बाद अब कोई इतना विध्वंसक युद्ध नहीं होगा।
परन्तु शान्ति सन्धियाँ युद्ध को सदा के लिए समाप्त करने में असमर्थ रहीं। संधियों की कुछ व्यवस्थाएं पराजित देशों की दृष्टि से अत्यंत कठोर थीं।
उन्होंने भावी संघर्षों के बीज बोए ।