He – Ne लेसर क्या है

He – Ne लेसर क्या है

He – Ne लेसर क्या है

परिभाषा –

He-Ne लेसर  –  हीलियम-निऑन लेसर प्रदर्शित किया गया है, जिसका उपयोग सामान्यतः प्रयोगशाला में प्रायोगिक प्रदर्शन के लिए किया जाता है।

इसमें काँच की एक बेलनाकार नली होती है जिसमें अल्प दाब पर लगभग 90% हीलियम गैस तथा लगभग 10% निऑन गैस का मिश्रण भरा होता है।

नली में दो इलेक्ट्रोड लगे होते हैं जो उच्च तनाव स्त्रोत से जुड़े रहते हैं।

 He - Ne लेसर क्या है

नली के सिरों पर दो समान्तर समतल दर्पण M1 और M2 लगे रहते हैं।

इनमें से दर्पण M, आंशिक परावर्ती होता है जिससे लेसर बाहर निकलता है।

 कार्य-विधि–

जब दोनों इलेक्ट्रोडों के मध्य उच्च विभवान्तर लगाया जाता है, तो गैस मिश्रण के कुछ परमाणु आयनित हो जाते हैं।

हीलियम और निऑन की ऊर्जा अवस्थाएं

इन परमाणुओं से मुक्त हुए इलेक्ट्रॉन प्रबल विद्युत् क्षेत्र में त्वरित होकर हीलियम परमाणुओं से टकराते हैं,

जिससे हीलियम परमाणु मितस्थायी अवस्था E3 में चले जाते हैं।

इस प्रकार उत्तेजित हीलियम परमाणु निऑन परमाणु से टकराते हैं और उन्हें अपनी ऊर्जा देकर मूल क्वाण्टम अवस्था Eo में आ जाते हैं।

उत्तेजित हीलियम परमाणुओं से ऊर्जा प्राप्त कर निऑन परमाणु उच्च ऊर्जा अवस्था E2 में चले जाते हैं।

यह प्रक्रिया लगातार चलती रहती है जिससे इस ऊर्जा अवस्था E2 में निऑन परमाणुओं की संख्या अत्यधिक हो जाती है।

ध्यान रहे कि निऑन की उच्च ऊर्जा अवस्था E2 उसको मितस्थायी अवस्था नहीं है

किन्तु मितस्थायो अवस्था E3 में उत्तेजित होलियम परमाणु टक्कर के द्वारा लगातार निऑन परमाणुओं को उच्च ऊर्जा अवस्था E2 में ले जाते हैं।

अब ऊर्जा अवस्थाएँ E2 और E1 के बीच उद्दीपित उत्सर्जन होता है।

E1, निऑन की उच्च ऊर्जा अवस्था E2, और मूल क्वाण्टम अवस्था E0 के मध्य एक अन्य ऊर्जा अवस्था होती है जिसमें परमाणु लगभग 10 सेकण्ड (अत्यन्त अल्प समय) तक ही रह सकते हैं।

इस प्रकार उद्दीपित उत्सर्जन के फलस्वरूप ऊर्जा अवस्था E2 से E1 में आने वाले परमाणु तुरन्त ही स्वतः उत्सर्जन द्वारा मूल क्वाण्टम अवस्था E0 में आ जाते हैं

जिससे निम्न ऊर्जा अवस्था E1 में परमाणुओं की संख्या बहुत ही कम रह जाती है,

चूँकि उच्च ऊर्जा अवस्था E में परमाणुओं की संख्या अत्यधिक होती है,

ऊर्जा अवस्थाओं E2 और E1 के मध्य समष्टि प्रतिलोमन बना रहता है और लेसिंग क्रिया (Lasing action) इन्हीं दो ऊर्जा अवस्थाओं के मध्य सम्पन्न होती है

और इस प्रकार लेसर किरणें उत्पादित होने लगती हैं।

लेसर किरणों की विशेषताएँ –

(i) लेसर किरणे एक वर्णिक (Monochromatic) होती हैं।

(ii) ये किरणें पूर्णतः कला-सम्बद्ध होती हैं।

(ii) ये किरणों दिशात्मक (Directional) होती हैं। फलस्वरूप इनका संकीर्ण किरण-पुँज प्राप्त होता है।

इन किरणों का फैलाव बहुत ही कम होता है।

(iv) इन किरणों की तीव्रता अत्यधिक होती है।

अतः इन किरणों की सहायता से कठोर से कठोर धातुओं को अणुभार में पिघलाकर वाष्पीकृत किया जा सकता है।

(v) ये किरणें बिना अवशोषण के अत्यधिक दूरी तक जा सकती हैं।

अत: इन किरणों की सहायता से बड़ी दूरियों को मापा जा सकता है।

(vi) लेसर किरणों के रंग को बदला जा सकता है।

यदि लाल लेसर किरणों को क्वार्ट्ज़ की पट्टियों में से गुजारा जाये तो उनका रंग बदल जाता है।

लेसर के उपयोग-

लेसर की खोज सन् 1960 में हुई थी। तब से लेकर आज तक लेसर तकनीकी में बहुत अधिक विकास हुआ है।

विभिन्न क्षेत्रों में लेसर किरणों का उपयोग किया जाता है। कुछ उपयोग नीचे दिये जा रहे हैं

(i) चिकित्सा क्षेत्र में—

चूँकि लेसर किरणें पूर्णत: समान्तर तथा एकवर्णिक होती हैं,

एक अभिसारी लेंस की सहायता से इन्हें एक अत्यन्त तीव्र धब्बे के रूप में फोकस किया जा सकता है।

अतः इन किरणों का उपयोग सूक्ष्म शल्य चिकित्सा (Micro surgery) में किया जाता है।

इनका उपयोग कैंसर और ट्यूमर के उपचार, कार्निया ग्राफ्टिंग, मस्तिष्क के आपरेशन आदि में भी किया जाता है।

(ii) संचार व्यवस्था में—

चूँकि लेसर किरणों का फैलाव बहुत ही कम होता है, सिग्नलों को लम्बी दूरी तक बिना प्रवर्धन के आसानी से भेजा जा सकता है।

अतः दिशात्मक रेडियो संचार में इन किरणों का उपयोग किया जाता है।

(iii) तकनीकी क्षेत्र में-

लेसर किरणें अत्यधिक संकीर्ण तथा तीव्र होती हैं। अतः इनका उपयोग कठोर से कठोर धातुओं को काटने, उनमें बारीक छिद्र करने तथा वेल्डिंग में किया जाता है।

इन किरणों के द्वारा हीरे में भी बारीक छिद्र किया जा सकता है तथा उसे काटा जा सकता है।

अवरक्त लेसर किरण पुँज का उपयोग कागज को बिना हानि पहुँचाये स्याही मिटाने में किया जाता है।

वस्त्र उद्योग में एक ही समय में कपड़ों की कई पढ़ें काटने में भी इन किरणों का उपयोग किया जाता है।

(iv) मौसम विज्ञान में-

इन किरणों के गुणों के आधार पर ‘लिडार’ नामक यन्त्र का निर्माण किया गया है जिसकी सहायता से मौसम की वास्तविक जानकारी प्राप्त की जा सकती है।

(v) बड़ी दूरियों के मापन में–

लेसर किरणें पूर्णत: समान्तर होती हैं तथा बिना फैलाव के अत्यधिक दूरी तक गमन कर सकती हैं।

अत: इन किरणों का उपयोग बड़ी दूरियों को मापने के लिए किया जाता है।

पृथ्वी और चन्द्रमा के बीच की दूरी इसी विधि से मापी गयी है।

(vi) युद्ध क्षेत्र में—

दुश्मनों के प्रक्षेपास्त्रों का पता लगाने तथा उन्हें नष्ट करने में इन किरणों का उपयोग किया जाता है।

लेसर किरणों पर आधारित ऐसे उपकरण बनाये गये हैं जिनकी सहायता से रात्रि में भी दुश्मनों को देखा जा सकता है।

(vii) अन्तरिक्ष विज्ञान में-

राकेटों और अन्तरिक्ष यानों को नियन्त्रित करने में इन किरणों का उपयोग किया जाता है।

(vii) होलोग्राफी में—

लेसर किरणों का उपयोग करके होलोग्राम (Hologram) बनाया जाता है जिसमें किसी वस्तु के त्रिविमीय चित्र अंकित होते हैं।

जब इस होलोग्राम को पुन: लेसर किरणों की सहायता से देखा जाता है, तो उस वस्तु के त्रिविमीय वास्तविक प्रतिबिम्ब दिखाई देते हैं।

त्रिविमीय फोटोग्राफी को ही होलोग्राफी कहा जाता है।

(ix) अनुसन्धान कार्यों में –

लेसर किरण पुँज की सहायता से इलेक्ट्रॉन का घनत्व, प्लाज्मा का ताप आदि ज्ञात किया जा सकता है।

(x) इनके अतिरिक्त लेसर प्रिण्टर, लेसर टार्च, संलयन रिएक्टर, भू-सर्वेक्षण आदि में लेसर किरणों का उपयोग किया जाता है।

आजकल लेसर किरणों को लेकर नये-नये प्रयोग किये जा रहे हैं। ( He – Ne लेसर क्या है )

नोट: सन् 1964 में नकोले बासोव (रसियन), ऐलेक्जेण्डर प्रोखोरोव (रसियन) एवं चार्ल्स टाउन्स (अमेरिकन) को मेसर तथा लेसर पर कार्य करने के लिए नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया।

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