संधारित्र का सिद्धान्त क्या है

संधारित्र का सिद्धान्त क्या है (Principle of Capacitor or Condenser)

Table of Contents

जानिए , संधारित्र का सिद्धान्त क्या है –

संधारित्र वह युक्ति है जिसके द्वारा किसी चालक के आकार या आयतन में बिना परिवर्तन किये उसकी विद्युत धारिता बढ़ायी जा सकती है।

सिद्धान्त –

मानलो A एक चालक प्लेट है जिसे धन आदेश दिया गया है।

संधारित्र का सिद्धान्त क्या है

इसके समीप दूसरा अनावेशित चालक प्लेट B लाने पर प्रेरण द्वारा B के निकटवर्ती बल पर ऋण आवेश तथा दूरवर्ती तल पर धन आवेश उत्पन्न हो जाता है ।

प्रेरित ऋण आवेश चालक A के विभव को कम करने का प्रयास करता है जबकि प्रेरित धनावेश A के विभव को बढ़ाने का प्रयास करता है,

किन्तु ऋणावेश A के अधिक निकट है,

अत: उसका प्रभाव अधिक पड़ता है।

फलस्वरूप चालक A का विभव कम हो जाता है।

इस प्रकार सूत्र C =Q/V के अनुसार चालक को विद्युत् धारिता बढ़ जाती है।

यदि B का सम्बन्ध पृथ्वी से कर दिया जाय तो स्वतन्त्र धनावेश पृथ्वी में चला जाता है और B पर केवल ऋणावेश ही बचा रहता है  ।

अत: चालक A का विभव और कम हो जाता है।

फलस्वरूप उसकी विद्युत् धारिता बढ़ जाती है।

इसी प्रकार, अब यदि प्लेट B को प्लेट A के क्रमश: समीप लाया जाये तो विभव V का मान और कम होते जाता है जिससे धारिता बढ़ती जाती है

और यदि उसे दूर ले जाया जाये तो धारिता कम होती जाती है अर्थात् चालक को धारिता में इच्छानुसार परिवर्तन किया जा सकता है।

स्पष्ट है कि किसी आवेशित चालक के समीप पृथ्वी से सम्बन्धित अन्य चालक को लाने पर आवेशित चालक की विद्युत् धारिता बढ़ जाती है। दो चालकों के इस समायोजन को ही संधारित्र कहते हैं

यही संधारित्र का सिद्धान्त है।

A और B को संधारित्र की प्लेट कहते हैं।

दोनों प्लेटों के मध्य या तो वायु होती है अथवा विद्युत्ररोधी पदार्थ; जैसे- अभ्रक, मोम, कागज, तेल, काँच इत्यादि रख दिये जाते हैं।

नोट: चालक की विद्युत् धारिता बढ़ाने पर उसमें अधिक मात्रा में विद्युत् आवेश (अथवा वैद्युत ऊर्जा) संचित हो जाता है।

ध्यान रहे कि किसी संधारित्र को एक निश्चित सीमा से अधिक आवेश नहीं दिया जा सकता क्योंकि लगातार आवेश देने पर उनकी प्लेटों के बीच विभवान्तर बढ़ता जाता है।

एक निश्चित सीमा से अधिक विभवान्तर होने पर उनके बीच के माध्यम का रोधन (Insulation) टूट जाता है और पहली प्लेट से दूसरी प्लेट की और विद्युत् विसर्जन हो जाता है।

संधारित्र की धारिता –

मानलो संधारित्र को प्लेट A को + Q आवेश देने पर उसका विभव V1 हो जाता है तथा प्लेट B में- Q आवेश प्रेरित होने के कारण उसका विभव V2 हो जाता है।

A और B के बीच विभवान्तर = V1 – V2

अतः

संधारित्र की धारिता C= Q /V1- V2-

उपर्युक्त सूत्र में यदि V1-V2 = I हो, तो C = Q

अतः किसी संधारित्र की धारिता उस आवेश के आंकिक मान के बराबर होती है जो पृथक्कृत प्लेट को देने पर दोनों प्लेटों के मध्य उत्पन्न विभवान्तर में इकाई की वृद्धि कर दे।

संधारित्र की धारिता को प्रभावित करने वाले कारक-

किसी संधारित्र की धारिता निम्न कारकों पर  निर्भर करती है.—-

(i) प्लेटों के क्षेत्रफल पर-

प्लेटों का क्षेत्रफल बढ़ाने पर संधारित्र की धारिता बढ़ जाती है।

(ii) प्लेटों के बीच की दूरी पर–

प्लेटों के बीच की दूरी कम करने पर संधारित्र की धारिता बढ़ जाती है।

(ii) प्लेटों के बीच के माध्यम पर-

संधारित्र की प्लेटों के बीच अधिक परावैद्युतांक का माध्यम रखने पर उसकी धारिता बढ़ जाती है ।

यदि संधारित्र की दोनों प्लेटों के बीच वायु होने पर धारिता C तथा दोनों प्लेटों के बीच K परावैद्युतांक का माध्यम होने पर धारिता C’ हो, तो C = KC,

अर्थात् परावैद्युत माध्यम की उपस्थिति में संधारित्र की धारिता बढ़ जाती है।

संधारित्र के प्रकार (Types of Capacitor )

संधारित्र मुख्यतः तीन प्रकार के होते हैं :

(a) समान्तर पट्ट संधारित्र,

(b) गोलीय संधारित्र और

(c) बेलनाकार संधारित्र ।

(a) समान्तर पट्ट संधारित्र (Parallel Plate Capacitor)

रचना-

समान्तर पट्ट संधारित्र

इसमें धातु की दो वृत्ताकार या आयताकार प्लेटें होती हैं जो कुछ दूरी पर एक-दूसरे के समान्तर रखी होती हैं।

इनमें से एक पृथक्कृत होती है तथा दूसरे का सम्बन्ध पृथ्वी से होता है।

इसकी विद्युत् धारिता बढ़ाने के लिए दोनों प्लेटों के मध्य कोई परावैद्युत माध्यम; जैसे अभ्रक, मोम, कागज इत्यादि भर दिये जाते हैं

धारिता के लिए व्यंजक –

यदि इस संधारित्र की धारिता C हो, तो C = Q /V

C=Q /( Qd/K ε0 A)

या

C= K ε0 A /d

यही समान्तर पट्ट संधारित्र की धारिता का व्यंजक है।

यदि दोनों प्लेटों के मध्य वायु या निर्वात हो, तो K = 1

अतः

C = ε0A/ d

यही वायु या निर्वात की उपस्थिति में समान्तर प्लेट संधारित्र की धारिता का सूत्र है।

समान्तर पट्ट संधारित्र की धारिता की निर्भरता–

समान्तर पट्ट संधारित्र भारिता निम्न बातों पर निर्भर करती है –

(i) प्लेटों के क्षेत्रफल पर –

किसी संधारित्र की विद्युत् धारिता C उसकी प्लेटों के क्षेत्रफल A के अनुक्रमानुपाती होती है।अर्थात् C ∝A.

(ii) प्लेटों के बीच की दूरी पर –

संधारित्र की धारिता C उनकी प्लेटों के बीच की दूरी d के व्युत्क्रमानुपाती होती है। अर्थात् C ∝ 1/d

(iii) प्लेटों के बीच के माध्यम पर-

संधारित्र की विद्युत् धारिता उनकी प्लेटों के बीच के माध्यम के परावैद्युतांक के अनुक्रमानुपाती होती है।

यदि दोनों प्लेटों के बीच वायु होने पर संधारित्र की धारिता C हो , तो दोनों प्लेटों के बीच K परावैद्युतांक का माध्यम होने पर संधारित्र को धारिता C’ = KC.

(b) गोलीय संधारित्र (Spherical Capacitor)

रचना –

गोलिय संधारित्र

गोलीय संधारित्र की रचना चित्र में प्रदर्शित की गई है।

इसमें धातु के दो संकेन्द्री (Concentric) खोखले गोले A और B होते हैं जिनके बीच कोई परावैद्युत माध्यम भरा होता है।

आन्तरिक गोले A से धातु की छड़ R जुड़ी रहती है जिसके सिरे पर घुण्डी लगी होती है।

यह बाह्य गोले B से पृथक्कृत रहती है। गोले B का सम्बन्ध पृथ्वी से होता है।

धारिता के लिए व्यंजक –

यदि इस संधारित्र को धारिता C हो, तो C = Q /V

C = 4 π εK (ab/a-b)

यही गोलीय संधारित्र की धारिता का सूत्र है।

वायु या निर्वात् के लिए K = 1, अतः

C = 4 π ε0  (ab/a-b)

यही वायु या निर्वात में गोलीय संधारित्र की धारिता का सूत्र है।

गोलीय संधारित्र की धारिता की निर्भरता-

गोलोय संधारित्र की धारिता निम्न बातों पर निर्भर करती है

(i) गोले की त्रिज्याओं aऔर b पर-

यदि गोले की त्रिज्याओं a और b के मान अधिक हैं तो गोलोय संधारित्र की धारिता अधिक होगी।

(ii) गोलों के बीच की दूरी b-a पर –

यदि b-a का मान कम है अर्थात् दोनों गोलों के बीच की दूरी कम है तो गोलीय संधारित्र की धारिता अधिक होगी।

(iii) गोलों के बीच के माध्यम पर

दोनों गोलों के मध्य अधिक परावैद्युतांक वाला माध्यम हो, तो गोलीय संधारित्र को धारिता अधिक होगी।

नोट: C. G. S. पद्धति में गोलीय संधारित्र की धारिता

C = Kab/ b-a

तथा

वायु या निर्वात् के लिए C= ab /b-a

(c) बेलनाकार संधारित्र (Cylindrical Capacitor)

रचना-

बेलनाकार संधारित्र

बेलनाकार संधारित्र की रचना चित्र  में प्रदर्शित की गई है।

इनमें A और B दो समाक्षीय (coaxial) खोलले बेलन होते हैं।

दोनों के मध्य कोई परावैद्युत् माध्यम भरा होता है।

बाह्य बेलन B का सम्बन्ध पृथ्वी से कर दिया जाता है।

धारिता के लिए व्यंजक-

यदि संधारित्र की प्रति एकांक लम्बाई की धारिता C हो, तो C = Q /V

C = λ /(λ/ 2πε0 K) log 10 (b/a) फैरड/मीटर

या

C= 2πε0 K/ 2.303 log 10 (b/a)  फैरड/मीटर

यही बेलनाकार संधारित्र की धारिता का सूत्र है।

वायु या निर्वात् के लिए K=1

C= 2πε0 / log e (b/a)  फैरड/मीटर b loge

C= 2πε0 K/ 2.303 log 10 (b/a)  फैरड/मीटर

अधिक धारिता के लिए शर्तें-

बेलनाकार संधारित्र की धारिता बढ़ाने के लिए –

(i) K का मान अधिक होना चाहिए अर्थात् दोनों बेलनों के मध्य अधिक परावैद्युतांक का परावैद्युत  होना चाहिए।

(ii) b/a का मान कम होना चाहिए, चूँकि b> a दोनों बेलनों की त्रिज्या लगभग बराबर होनी चाहिए।

(iii) समीकरण  प्रति एकांक लम्बाई की धारिता को व्यक्त करता है।

अतः बेलनों की लम्बाई को अधिक होनी चाहिए।

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Author: educationallof

6 thoughts on “संधारित्र का सिद्धान्त क्या है

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    सवाल चाहिए। संधारित्र ने क्या क्या होता है और ये कैसे किया जाता है पूरी जानकारी चाहिए।

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