लेसर क्या है
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लेसर क्या है
लेसर एक ऐसी युक्ति है जिसकी सहायता से अति दिशात्मक, एकवर्णी और कला सम्बद्ध प्रकाश पुंज प्राप्त किया जाता है।
शब्द लेसर (Laser) का पूरा रूप Light amplification by stimulated emission of radiation है।
जिसका अर्थ है- “उद्दीपित उत्सर्जन द्वारा प्रकाश का प्रवर्धन।”
अवधारणाएँ (Concepts)-
लेंसर के सिद्धान्त को समझने के पूर्व निम्न प्रक्रियाओं से परिचित होना आवश्यक है-
(i) अवशोषण (Absorption)-
सामान्यतः किसी पदार्थ के परमाणु अपनी निम्न ऊर्जा अवस्था अर्थात् मूल क्वाण्टम अवस्था (Ground quantum state) में होते हैं।
जब किसी परमाणु को किसी प्रकाश स्रोत से ऊर्जा (hυ = E2 – E1 ) प्राप्त होती है,
तो वह परमाणु ऊर्जा अवशोषित करके उत्तेजित होकर उच्च ऊर्जा स्तर में चला जाता है। इसे अवशोषण कहते हैं।
(ii) स्वतः उत्सर्जन (Spontaneous emission)-
कोई परमाणु अपनी उच्च ऊर्जा अवस्था में अत्यन्त अल्प समय (लगभग 10 सेकण्ड ) तक ही रहता है।
इसके पश्चात् वह प्रकाश फोटॉन का उत्सर्जन कर अपनी निम्न ऊर्जा अवस्था में लौट आता है।
यह प्रक्रिया बिना किसी बाहा कारक के सम्पन्न होती है। अतः इसे स्वतः उत्सर्जन कहते हैं।
यदि निम्न ऊर्जा अवस्था की ऊर्जा E. उच्च ऊर्जा अवस्था की ऊर्जा E, तथा उत्सर्जित प्रकाश फोटॉन की आवृत्ति υ हो तो
hυ = E2 – E1, जहाँ h प्लांक नियतांक है।
एक सामान्य प्रकाश स्रोत के परमाणु एक-दूसरे से स्वतंत्र फोटॉनों का उत्सर्जन करते हैं।
फलस्वरूप इन विभिन्न फोटॉनों की कलाएँ भिन्न-भिन्न होती हैं।
इस प्रकार उत्सर्जित प्रकाश कला असम्बद्ध होता है।
नोट : (i) मरकरी और सोडियम लँपों के प्रकाश का उत्पादन स्वतः उत्सर्जन द्वारा होता है।
(ii) लेसर सामान्य प्रकाश से इस प्रकार भिन्न होती है कि सामान्य प्रकाश फोटॉनों का उत्सर्जन लगभग सभी दिशाओं में करता है जबकि लेसर का उर्त्सजन केवल एक ही दिशा में होता है।
(iii) उद्दीपित उत्सर्जन (Stimulated emission)-
मानलो कोई परमाणु उच्च ऊर्जा अवस्था E2 में है । इस पर ऊर्जा hυ = E2 – E1 का एक फोटॉन आपतित होता है।
यह आपतित फोटॉन परमाणु को एक फोटॉन उत्सर्जित करके निम्न ऊर्जा स्तर E1 में आने के लिए उद्दीपित कर देता है।
इस उत्सर्जित द्वितीयक फोटॉन की कला, ऊर्जा, ध्रुवण तथा संचरण की दिशा आपतित फोटॉन की संगत राशियों के सर्वसम होती हैं।
इस प्रक्रिया को उद्दीपित उत्सर्जन कहते हैं।
यह प्रक्रिया स्वतः उत्सर्जन से भिन्न होती है तथा इस प्रक्रिया में स्वतः उत्सर्जन की तुलना में कम समय लगता है।
(iv) संख्या व्युत्क्रमण (Population inversion)-
सामान्यतः निम्न ऊर्जा स्तर में परमाणुओं की संख्या अधिक होती है।
कला सम्बद्ध प्रोटॉन उत्सर्जित करने के लिए यह आवश्यक है कि उच्च ऊर्जा स्तर पर परमाणुओं की संख्या अधिक हो।
उच्च ऊर्जा स्तर में परमाणुओं की संख्या बढ़ाने की प्रक्रिया को संख्याव्युत्क्रमण कहते हैं।
इस विधि को जिसके द्वारा संख्या व्युत्क्रमण प्राप्त होता है। प्रकाशीय उत्तेजन (Optical pumping) कहते हैं ।
(v) मितस्थायी अवस्था (Metastable states)-
कुछ पराओं (वैसे क्रोमियम, हीलियम आदि) एक निश्चित उत्तेजित ऊर्जा स्तर होता है जिसमें परमाणु उच्च ऊर्जा स्तर की तुलना में अधिक समय (लगभग10 सेकण्ड ) तक रह सकते हैं।
इस अवस्था को स्थायी अवस्था कहते हैं।
मितस्थायी अवस्था प्रदर्शित करने वाले परमाणु उत्तेजित उच्च ऊर्जा स्तर से सीधे निम्न ऊर्जा स्तर में नहीं आते अपितु पहले मितस्यायी अवस्था में आते हैं।
तत्पश्चात् एक निश्चित समय (10 सेकण्ड ) पश्चात् निम्न ऊर्जा स्तर में आते हैं।
चूँकि इस प्रकार के परमाणु अधिक समय तक मिवस्थायो अवस्था में रहते हैं, इनमें संख्या व्युत्क्रमण की प्रक्रिया आसानी से की जा सकती है।
लेसर का सिद्धान्त (Principle of Laser)-
लेसर पुंज उत्पादन हेतु ऐसा निकाय चुना जाता है जिसके परमाणु तीन ऊर्जा स्तरों में रह सकते हैं
(1) निम्न ऊर्जा स्तर E1
(ii) उच्च ऊर्जा स्तर E3-
इस ऊर्जा स्तर में परमाणु अत्यन्त अल्प समय 10 सेकण्ड तक ही रह सकते हैं।
(iii) मितस्थायी अवस्था E2-
इस ऊर्जा स्तर में परमाणु उच्च ऊर्जा स्तर की अपेक्षा अधिक समय 10-1 हैं। सेकण्ड तक रह सकते हैं।
जब निम्न ऊर्जा स्तर B वाले परमाणुओं को ऊर्जा hυ ‘= E3 – E1 , देकर उच्च ऊर्जा स्तर E में उत्तेजित (pumping) किया जाता है तो ये परमाणु शीघ्रता से मितस्थायी अवस्था E में चले जाते हैं।
परिस्थितियाँ अनुकूल होने पर अवस्था By में परमाणुओं की संख्या निम्न ऊर्जा स्तर E की तुलना में अधिक हो जाती है।
यह संख्या व्युत्क्रमण की स्थिति होती हैं।
अब यदि मितस्थायी अवस्था E2 में निकाय के एक परमाणु पर (E2-E1 ) ऊर्जा का एक प्रकाश- फोटॉन, आपतित हो तो
यह परमाणु तुरन्त ही उद्दीपित उत्सर्जन के कारण (E2 -E1 ) ऊर्जा के प्रकाश फोटॉन का उत्सर्जन कर निम्न ऊर्जा अवस्था E में आ जाता है।
यह उत्सर्जित फोटॉन आपतित फोटॉन के साथ कला-सम्बद्ध होता है।
ये दोनों फोटॉन E2, ऊर्जा स्तर वाले अन्य दो परमाणुओं से अन्योन्य क्रिया करते हैं और आगे यही क्रिया चलती रहती है।
इस प्रकार प्रकाश फोटॉनों की संख्या लगातार बढ़ती चली जाती है।
ये सभी फोटॉन कला सम्बद्ध होते हैं अर्थात् उनकी कला व ऊर्जा समान होती हैं तथा वे एक ही दिशा में होते हैं।
इस प्रकार प्रकाश का प्रवर्धन होता जाता है
इस प्रक्रिया को जारी रखने के लिए निम्न दो शर्तें आवश्यक हैं –
(i) मितस्थायी अवस्था E, में परमाणुओं की संख्या को निम्न ऊर्जा अवस्था E1 में परमाणुओं की संख्या से बहुत अधिक होना में अवस्था चाहिए।
यदि निम्न ऊर्जा अवस्था E1 में परमाणुओं की संख्या अधिक है ऊर्जा का आपतित फोटॉन तो वे उच्च ऊर्जा अवस्था में जाने के लिए अधिक-से-अधिक प्रकाश फोटॉनों का अवशोषण करेंगे।
फलस्वरूप उद्दीपित उत्सर्जन मन्द हो जायेगा और प्रकाश का प्रवर्धन नहीं हो सकेगा ।
(ii) उद्दीपित फोटॉन निकाय में अधिक से अधिक समय तक रहकर अन्य परमाणुओं से अन्योन्य क्रिया कर प्रवर्धन को जारी रख सकें।
इसके लिए बेलनाकार निकाय के दोनों सिरे पर एक-एक समतल दर्पण लगा दिये जाते हैं,
जिससे प्रकाश फोटॉन बार-बार परावर्तित होकर निकाय में अधिक समय तक रहते हैं।
इनमें से एक दर्पण पूर्ण परावर्तक तथा दूसरा दर्पण आंशिक परावर्तक होता है जो फोटॉन अक्ष के समान्तर होते हैं वे बार-बार दर्पणों से टकराते हैं और परावर्तित होते हैं।
जो प्रकाश- फोटॉन बेलनाकार निकाय के अक्ष के समान्तर नहीं होते हैं वे कुछ परावर्तन के पश्चात् बाहर निकल जाते हैं।
इस प्रकार केवल अक्ष के समान्तर प्रकाश का हो प्रवर्धन होता है।
आंशिक परावर्तक दर्पण से लगभग 10% भाग पारगमित होता है जो लेसर पुंज बनाता है।
प्रकाशीय उत्तेजन के आधार पर लेसर कई प्रकार के होते हैं, जैसे-रूबी लेसर, गैस लेसर, अर्द्धचालक लेसर आदि।
लेसर किरणों की विशेषताएँ –
(i) लेसर किरणे एक वर्णिक (Monochromatic) होती हैं।
(ii) ये किरणें पूर्णतः कला-सम्बद्ध होती हैं।
(ii) ये किरणों दिशात्मक (Directional) होती हैं। फलस्वरूप इनका संकीर्ण किरण-पुँज प्राप्त होता है।
इन किरणों का फैलाव बहुत ही कम होता है।
(iv) इन किरणों की तीव्रता अत्यधिक होती है।
अतः इन किरणों की सहायता से कठोर से कठोर धातुओं को अणुभार में पिघलाकर वाष्पीकृत किया जा सकता है।
(v) ये किरणें बिना अवशोषण के अत्यधिक दूरी तक जा सकती हैं।
अत: इन किरणों की सहायता से बड़ी दूरियों को मापा जा सकता है।
(vi) लेसर किरणों के रंग को बदला जा सकता है।
यदि लाल लेसर किरणों को क्वार्ट्ज़ की पट्टियों में से गुजारा जाये तो उनका रंग बदल जाता है।
लेसर के उपयोग-
लेसर की खोज सन् 1960 में हुई थी। तब से लेकर आज तक लेसर तकनीकी में बहुत अधिक विकास हुआ है।
विभिन्न क्षेत्रों में लेसर किरणों का उपयोग किया जाता है। कुछ उपयोग नीचे दिये जा रहे हैं
(i) चिकित्सा क्षेत्र में—
चूँकि लेसर किरणें पूर्णत: समान्तर तथा एकवर्णिक होती हैं,
एक अभिसारी लेंस की सहायता से इन्हें एक अत्यन्त तीव्र धब्बे के रूप में फोकस किया जा सकता है।
अतः इन किरणों का उपयोग सूक्ष्म शल्य चिकित्सा (Micro surgery) में किया जाता है।
इनका उपयोग कैंसर और ट्यूमर के उपचार, कार्निया ग्राफ्टिंग, मस्तिष्क के आपरेशन आदि में भी किया जाता है।
(ii) संचार व्यवस्था में—
चूँकि लेसर किरणों का फैलाव बहुत ही कम होता है, सिग्नलों को लम्बी दूरी तक बिना प्रवर्धन के आसानी से भेजा जा सकता है।
अतः दिशात्मक रेडियो संचार में इन किरणों का उपयोग किया जाता है।
(iii) तकनीकी क्षेत्र में-
लेसर किरणें अत्यधिक संकीर्ण तथा तीव्र होती हैं। अतः इनका उपयोग कठोर से कठोर धातुओं को काटने, उनमें बारीक छिद्र करने तथा वेल्डिंग में किया जाता है।
इन किरणों के द्वारा हीरे में भी बारीक छिद्र किया जा सकता है तथा उसे काटा जा सकता है।
अवरक्त लेसर किरण पुँज का उपयोग कागज को बिना हानि पहुँचाये स्याही मिटाने में किया जाता है।
वस्त्र उद्योग में एक ही समय में कपड़ों की कई पढ़ें काटने में भी इन किरणों का उपयोग किया जाता है।
(iv) मौसम विज्ञान में-
इन किरणों के गुणों के आधार पर ‘लिडार’ नामक यन्त्र का निर्माण किया गया है जिसकी सहायता से मौसम की वास्तविक जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
(v) बड़ी दूरियों के मापन में–
लेसर किरणें पूर्णत: समान्तर होती हैं तथा बिना फैलाव के अत्यधिक दूरी तक गमन कर सकती हैं।
अत: इन किरणों का उपयोग बड़ी दूरियों को मापने के लिए किया जाता है।
पृथ्वी और चन्द्रमा के बीच की दूरी इसी विधि से मापी गयी है।
(vi) युद्ध क्षेत्र में—
दुश्मनों के प्रक्षेपास्त्रों का पता लगाने तथा उन्हें नष्ट करने में इन किरणों का उपयोग किया जाता है।
लेसर किरणों पर आधारित ऐसे उपकरण बनाये गये हैं जिनकी सहायता से रात्रि में भी दुश्मनों को देखा जा सकता है।
(vii) अन्तरिक्ष विज्ञान में-
राकेटों और अन्तरिक्ष यानों को नियन्त्रित करने में इन किरणों का उपयोग किया जाता है।
(vii) होलोग्राफी में—
लेसर किरणों का उपयोग करके होलोग्राम (Hologram) बनाया जाता है जिसमें किसी वस्तु के त्रिविमीय चित्र अंकित होते हैं।
जब इस होलोग्राम को पुन: लेसर किरणों की सहायता से देखा जाता है, तो उस वस्तु के त्रिविमीय वास्तविक प्रतिबिम्ब दिखाई देते हैं।
त्रिविमीय फोटोग्राफी को ही होलोग्राफी कहा जाता है।
(ix) अनुसन्धान कार्यों में –
लेसर किरण पुँज की सहायता से इलेक्ट्रॉन का घनत्व, प्लाज्मा का ताप आदि ज्ञात किया जा सकता है।
(x) इनके अतिरिक्त लेसर प्रिण्टर, लेसर टार्च, संलयन रिएक्टर, भू-सर्वेक्षण आदि में लेसर किरणों का उपयोग किया जाता है।
आजकल लेसर किरणों को लेकर नये-नये प्रयोग किये जा रहे हैं। ( He – Ne लेसर क्या है )
नोट: सन् 1964 में नकोले बासोव (रसियन), ऐलेक्जेण्डर प्रोखोरोव (रसियन) एवं चार्ल्स टाउन्स (अमेरिकन) को मेसर तथा लेसर पर कार्य करने के लिए नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया।
(लेसर क्या है ? )
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